AIIMS : ने छात्रों के लिए लॉन्च किया नया ऐप, करेगा तनाव और आत्महत्या की रोकथाम
दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) ने छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर मंडरा रहे खतरे को कम करने के लिए एक नया स्मार्टफोन एप्लिकेशन लॉन्च किया है। देश-भर में हर साल सैकड़ों विद्यार्थी निराशा के गहरे अंधेरे में चले जाते हैं। इन दर्दनाक घटनाओं पर लगाम कसने के इरादे से विकसित यह ऐप समय रहते तनाव के संकेत पकड़ लेता है और तुरंत सहायता उपलब्ध कराता है। AIIMS AI आधारित ऐप नाम का यह उपकरण न सिर्फ वैज्ञानिक शोध पर टिका है, बल्कि इसे रोज़मर्रा की भाषा में समझने और अपनाने लायक बनाया गया है, ताकि कोई भी किशोर या युवा इसे बिना झिझक इस्तेमाल कर सके।
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कैसे काम करता है यह स्मार्टफोन एप्लिकेशन, और कौन-कौन सी विशेषताएँ शामिल हैं
ऐप में सरल प्रश्नावली है जो छात्र के मूड, नींद, पढ़ाई के बोझ और सामाजिक जुड़ाव को परखती है। जवाबों का विश्लेषण कृत्रिम बुद्धिमत्ता के एल्गोरिथम से होता है, जो जोखिम के स्तर को तुरंत अंकित कर देता है। अगर किसी विद्यार्थी के जवाब लगातार चिंता या उदासी की ओर इशारा करते हैं, तो ऐप स्वचालित रूप से मनोवैज्ञानिक परामर्श का विकल्प दिखाता है और नज़दीकी हेल्पलाइन नंबर भी फ्लैश करता है। इससे पहले कि नकारात्मक विचार गहराई पकड़ें, मदद पहुंच जाती है। चूँकि प्रक्रिया कुछ सेकंड में पूरी हो जाती है, छात्र को लंबे फॉर्म भरने या टेक्स्ट बुक पढ़ने की जरूरत नहीं पड़ती।
डॉक्टरों और इंजीनियरों की साझा मेहनत का नतीजा: प्रयोगशाला से क्लासरूम तक की यात्रा
ऐप तैयार करने में AIIMS के मनोरोग विभाग, कंप्यूटर विज्ञान विभाग और एक निजी टेक स्टार्ट-अप की टीम ने डेढ़ साल तक लगातार काम किया। डॉक्टरों ने बताया कि उन्होंने हज़ारों छात्रों के भावनात्मक पैटर्न का अध्ययन किया, जबकि इंजीनियरों ने इन पैटर्न को मशीन लर्निंग मॉडल में बदला। इस दौरान भाषा सरल रखने पर जोर दिया गया, ताकि मेडिकल शब्दावली छात्र को न डरा सके। टीम का मानना है कि तकनीक तभी कारगर है जब वह इंसान को जटिल न लगे, और यही सोच ऐप के इंटरफेस में झलकती है।
डेटा प्राइवेसी और सुरक्षा के ठोस इंतज़ाम, किसी भी जानकारी का दुरुपयोग नहीं
छात्रों और अभिभावकों के मन में पहला सवाल डेटा की सुरक्षा को लेकर उठता है। AIIMS ने स्पष्ट किया है कि सभी जवाब एन्क्रिप्टेड सर्वर पर स्टोर होते हैं, जहाँ तक पहुँच केवल अधिकृत डॉक्टरों को है। किसी भी बाहरी संस्था या विज्ञापनदाता के साथ जानकारी साझा नहीं की जाएगी। अगर छात्र चाहें, तो वे किसी भी समय “डेटा हटाएँ” विकल्प का इस्तेमाल कर सकते हैं। इन उपायों के चलते ऐप भारत के मौजूदा डेटा संरक्षण विधेयक के अनुरूप है, और उपयोगकर्ता निश्चिंत होकर इसे चला सकते हैं।
पहले पायलट प्रोजेक्ट ने दिए चौंकाने वाले नतीजे, दो महीनों में तनाव के ग्राफ में भारी गिरावट
एप्लिकेशन का पहला परीक्षण दिल्ली-एनसीआर के पाँच कॉलेजों में लगभग दस हज़ार छात्रों पर किया गया। दो महीनों में रिपोर्ट आई कि आत्मघाती विचार साझा करने वाले विद्यार्थियों की संख्या 28% से घटकर 9% रह गई। मनोचिकित्सकों ने देखा कि शुरुआती चेतावनी मिलने पर प्रोफेशनल परामर्श सफल सिद्ध हुआ, और कई छात्रों ने पढ़ाई में फिर से रुचि दिखाई। कुछ विद्यार्थियों ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि ऐप ने उन्हें ऐसा लगा जैसे कोई दोस्त हर वक़्त उनका हाथ थामे खड़ा है। ये आँकड़े दर्शाते हैं कि सही तकनीक सही समय पर कितनी असरदार हो सकती है।
छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों को क्या करना होगा, ताकि मदद का दायरा और फैले
AIIMS ने कॉलेज प्रशासन को निर्देश दिया है कि पहला सेमेस्टर शुरू होते ही सभी नए छात्रों के फोन में ऐप इंस्टॉल करवाएँ। अभिभावकों को भी सुझाव दिया गया है कि वे सप्ताह में एक बार बच्चे से पूछें कि ऐप क्या बता रहा है। शिक्षकों को ट्रेनिंग दी जा रही है कि अगर ऐप किसी छात्र को “हाई रिस्क” श्रेणी में डालता है तो तुरंत काउंसलिंग सेल से संपर्क करें। इस त्रिकोणीय मॉडल—छात्र, घर, कॉलेज—से उम्मीद है कि कोई भी बच्चा मदद के दायरे से बाहर नहीं जाएगा।
देश के दूसरे संस्थान भी ले सकते हैं सीख, राष्ट्रीय स्तर पर योजना बनाने की तैयारी
मानव संसाधन मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक, अगर अगले छह महीने में ऐप का प्रदर्शन संतोषजनक रहता है, तो इसे आईआईटी, एनआईटी और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में लागू किया जाएगा। कुछ राज्य सरकारों ने पहले ही AIIMS से संपर्क कर पायलट रन का प्रस्ताव रखा है। विशेषज्ञों का मानना है कि देशव्यापी विस्तार से आत्महत्या के आँकड़ों में बड़ी गिरावट दर्ज की जा सकती है। इसके साथ ही मानसिक स्वास्थ्य को लेकर होने वाली शर्म भी कम होगी, क्योंकि जब मदद फोन में ही हो, तो किसी क्लिनिक में लाइन लगाने की हिचक मिट जाती है।
मनोवैज्ञानिकों की राय: तकनीक मददगार, पर मानवीय स्पर्श ज़रूरी रहता है
कई वरिष्ठ मनोवैज्ञानिकों ने इस पहल की सराहना की है, लेकिन यह भी याद दिलाया है कि ऐप सिर्फ पहला कदम है। उनका कहना है कि गंभीर मामलों में सीधी काउंसलिंग और परिवार का सहयोग अनिवार्य है। तकनीक संकेत दे सकती है, पर इलाज अंततः इंसान ही देगा। इसलिए कॉलेजों को परामर्श केंद्रों की संख्या बढ़ानी होगी और शिक्षकों को संवेदनशील बनाना होगा। जब इंसानी सहानुभूति और स्मार्ट तकनीक हाथ मिलाते हैं, तभी संपूर्ण समाधान संभव होता है।
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