बिहार चुनाव में अगर महिला वोट निर्णायक बने तो नीतीश कुमार भारी पड़ेंगे
बिहार की हवा एक बार फिर चुनावी नारे से भरी है। लेकिन इस बार कहानी थोड़ी अलग है। मुद्दे हैं – रोजगार, विकास, और सबसे अहम, महिला वोट। हाँ, वही महिला वोट जो कई बार नतीजे पलट देता है। अगर इस बार भी ऐसा हुआ, तो नीतीश कुमार एक बार फिर भारी पड़ सकते हैं।
महिलाओं का बढ़ता रुझान और राजनीति का नया समीकरण
अब गांव-गांव में लोग कहते हैं — “औरतें अब चुप नहीं हैं।” यही बात सच्ची भी लगती है। हर बार की तरह इस बार भी महिला वोटरों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण हो गई है। नीतीश कुमार ने इन्हीं महिलाओं के भरोसे अपने विकास मॉडल को खड़ा किया था। उनकी साइकिल योजना से लेकर जल-नल-घर तक, महिलाओं के जीवन में ये योजनाएँ गहराई तक उतरी हैं। शायद यही वजह है कि वो अब भी इस वर्ग के बीच एक “भरोसेमंद चेहरा” बने हुए हैं।
तेजस्वी यादव की नई चाल – दीदी कनेक्शन
बात यहीं खत्म नहीं होती। तेजस्वी यादव ने इस बार महिला वोट बैंक को लेकर अपनी गेम प्लान बदली है। हाल ही में उन्होंने 'जीविका दीदियों' के बीच जाकर संवाद किया। साफ दिख रहा था कि वो नीतीश का पारंपरिक वोट बैंक तोड़ने उतरे हैं। ग्रामीण इलाकों में उनकी सभाओं में अब पहले से ज्यादा महिलाएं शामिल हो रही हैं। लोग कहते हैं, “तेजस्वी अब सुनना सीख गए हैं।” यह छोटा वाक्य बहुत कुछ कह जाता है।
महिला वोट: बिहार का नया गेम चेंजर
बिहार की राजनीति में महिलाएं अब केवल आंकड़े नहीं रहीं। वे अब फैसले करने वाली शक्ति बन चुकी हैं। आँकड़े बताते हैं कि 2015 और 2020 के चुनाव में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से ज़्यादा रही। और वोट देते समय उनकी सोच एकदम साफ होती है – “जिसने काम किया, उसी को देंगे।” नीतीश कुमार यह बात शुरू से समझते हैं, शायद इसलिए उन्हें महिला नेतृत्व का समर्थन अक्सर मिल जाता है।
नीतीश कुमार की सादगी और भरोसे की राजनीति
राजनीति में कई लोग बड़े वादे करते हैं, पर नीतीश कुमार की शैली अलग रही है। कम बोलते हैं, पर काम बोलता है। महिलाओं के बीच उनकी नीतियों की पकड़ अब भी ज्यादा मजबूत है। शिक्षा, सुरक्षा और स्वावलंबन – ये तीन शब्द उनकी छवि से गहराई से जुड़े हैं। जिन्होंने घर में बदलाव महसूस किया, वो अभी भी उन्हें भरोसे का प्रतीक मानती हैं।
तेजस्वी की चुनौती – भरोसे की दीवार तोड़ना
लेकिन इस चुनाव में तेजस्वी यादव ने भी चाल धीमे पर गहरी चली है। गांवों में उनकी सभाओं में ‘लालू यादव के बेटे’ वाली पहचान अब धीरे-धीरे बदलकर एक ‘नए नेता’ में तब्दील हो रही है। वे रोजगार, गरीब महिलाओं की आय और सरकारी सहयोग योजनाओं की बात करते हैं। और यही शायद इस बार नीतीश की असली परीक्षा होगी।
जीविका दीदी से लेकर गांव की औरत तक
बिहार में लाखों महिलाएं ‘जीविका समूह’ से जुड़ी हैं। ये वो दीदियां हैं जिन्होंने अपने दम पर छोटे व्यवसाय शुरू किए। नीतीश कुमार ने इन्हें पहचान दी, लेकिन अब तेजस्वी यादव इनसे सीधा संवाद बना रहे हैं। ये महिलाएं अब गांव में बहस करती दिख रही हैं — “किसने सच में कुछ बदला?” जवाब हर जगह अलग-अलग हैं। पर इतना तय है कि इस बार चुनाव में महिलाओं की आवाज़ दबेगी नहीं।
महिला वोट से तय होगी तस्वीर
पिछले दो चुनावों में महिलाओं ने नीतीश को अप्रत्याशित जीत दिलाई थी। अब वही सूत्र इस बार भी दोहराया जा सकता है। लेकिन हालात थोड़े अलग हैं। विरोधी दलों ने भी महिला सशक्तिकरण पर दांव खेला है। तेजस्वी यादव के भाषण अब सीधे घर की रसोई तक पहुंच रहे हैं। और यही बात मुकाबले को रोचक बना रही है।
डिजिटल दौर में महिला वोटरों की कहानी
अब यह सिर्फ गांव के चौपाल तक सीमित नहीं है। सोशल मीडिया पर महिला वोटरों की भागीदारी तेज़ी से बढ़ रही है। व्हाट्सएप ग्रुप्स में नीतीश कुमार की योजनाएं और तेजस्वी यादव के वीडियो आम चर्चा का हिस्सा हैं। गांव की बेटियां भी अब अपने फोन से राजनीति समझने लगी हैं। ये नया बिहार है, जो पहले से ज़्यादा जागरूक और निर्णायक दिख रहा है।
नीतीश बनाम तेजस्वी – सीधा और सादा मुकाबला
अब सवाल यही है कि क्या महिला वोट फिर से नीतीश को फायदा देगा? बहुत हद तक हाँ। क्योंकि उनकी नीतियों का असर अब भी दिलों में है। मगर इस बार तेजस्वी यादव पहली बार टक्कर देने की पूरी तैयारी में हैं। वे यूथ और महिला दोनों मोर्चे पर सक्रिय हैं। बिहार की राजनीति अब दो पीढ़ियों का सीधा संघर्ष बनती जा रही है।


