BJPs dilemma : नीतीश कुमार की सीएम उम्मीदवारी पर अब भी क्यों सिसक रही है पार्टी?
बिहार की सियासत में बीजेपी की सबसे बड़ी दुविधा अब भी बनी हुई है — आखिर नीतीश कुमार की सीएम उम्मीदवारी पर पार्टी खुलकर बोल क्यों नहीं पा रही। क्या बीजेपी को उनके पुराने गठबंधन और बार-बार बदलते रुख से डर लग रहा है, या फिर यह सब राजनीतिक मजबूरी का हिस्सा है? जवाब ढूँढने की कोशिश जारी है।
बीजेपी अब भी नीतीश कुमार की सीएम उम्मीदवारी से क्यों डर रही है?
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बिहार, यहाँ राजनीति हवा से भी तेज रुख बदलती है। आज जो साथ है, कल सामने खड़ा हो जाता है। और इस राजनीतिक तूफान के बीच नीतीश कुमार की सीएम उम्मीदवारी को लेकर बीजेपी का मन अब भी उलझा हुआ है। इतना समय बीत गया, पर पार्टी अब तक साफ नहीं बोली कि अगर फिर से एनडीए सत्ता में आया, तो चेहरा कौन? नीतीश या कोई नया चेहरा?
दिल्ली में बैठे बड़े नेता सोच में हैं। पटना वाले भी। सबको अंदाज़ा है जवाब देना आसान नहीं। सच कहें तो बीजेपी आज भी अपने पुराने साथी के साये से बाहर नहीं निकल सकी है।
नीतीश कुमार का इतिहास और बीजेपी की दुविधा
देखा जाए तो नीतीश कुमार की सीएम उम्मीदवारी बीजेपी के लिए वरदान भी है, और सिरदर्द भी। नीतीश की छवि है सुशासन बाबू की। लेकिन उनका राजनीतिक इतिहास, बस यूँ कहिए थोड़ा उलझा रहा है। कभी एनडीए के साथ, कभी महागठबंधन के बीच। और यह सब याद आते ही बीजेपी के अंदर झिझक आ जाती है। कोई खुल कर नहीं कहता, पर सबके मन में डर है कि अगर फिर उन्होंने रास्ता बदला तो पूरा समीकरण पलट जाएगा।
पार्टी के पुराने नेता अब भी नीतीश पर भरोसा करना चाहते हैं, जबकि नए चेहरे कह रहे हैं बस बहुत हुआ, अब नया चेहरा चाहिए। मगर नाम कौन देगा? यही कन्फ्यूजन सबसे बड़ी लड़ाई है।
नया चेहरा या पुराना भरोसा?
बीजेपी के अंदर हलचल है। कुछ कह रहे हैं, अब वक्त आ गया कि बिहार में अपना नेता प्रोजेक्ट किया जाए। एक ऐसा चेहरा जो आने वाले दस सालों तक पार्टी की पहचान बने। लेकिन कौन? जवाब नहीं। नीतीश कुमार की सीएम उम्मीदवारी पर बात आते ही माहौल बदल जाता है। कोई बोलने से बचता है, कोई विषय बदल देता है।
पार्टी जानती है बिहार की जनता अब भी नीतीश को पहचानती है, नाम सुनते ही भरोसा करती है। तो फिर बीजेपी क्यों जोखिम उठाए?
पुराने रिश्ते जो अब भी असर डालते हैं
आप सोचिए, बीस साल हो गए लेकिन बिहार की राजनीति में एनडीए का नाम आज भी नीतीश कुमार की सीएम उम्मीदवारी से ही जुड़ा है। हर चुनाव, हर मंच, हर पोस्टर पर वही चेहरा। अब अगर बीजेपी एकदम से कह दे कि “नीतीश नहीं”, तो जनता भी चौंक जाएगी। और चौंकना कभी-कभी राजनीति में खतरनाक होता है।
बीजेपी के अंदर ये डर अभी भी है कि कहीं एनडीए की एकजुटता टूट न जाए। क्योंकि बिना नीतीश के, बिहार की राजनीति उनके लिए उतनी सहज नहीं रहती जितनी दिखती है।
मतभेद जो दबे हैं, पर खत्म नहीं
कहने को पार्टी एकजुट है, पर अंदरखाने सब कुछ ठीक नहीं है। कई युवा चेहरों का कहना है कि भाजपा को अब आत्मनिर्भर होना चाहिए। दूसरी ओर, पुराने नेता कहते हैं अभी नहीं, वक्त आने दो। एक नेता ने तो हँसते हुए कहा, “इतनी जल्दी नीतीश को ‘एक्स’ नहीं किया जा सकता।”
ये मजाक नहीं। यही सच्चाई है। बीजेपी के रणनीतिकारों में असल डर यही है अगर नीतीश ने साथ छोड़ा तो जनता गुमराह हो जाएगी, और विपक्ष इसका फायदा उठा लेगा। नीतीश कुमार की सीएम उम्मीदवारी पर हर मीटिंग में यही बात घूम घूमकर लौट आती है।
जनता भी समझ रही है खेल
गांवों के चाय ठेलों से लेकर पटना की बैठकों तक अब यही चर्चा है। “इस बार चेहरा कौन?” कोई कहता है बीजेपी का अपना नेता। कोई बोलता है फिर नीतीश। बिहार की जनता सब देख रही है, सब समझ भी रही है। उन्हें पता है कि अबकी बार लड़ाई सिर्फ वोट की नहीं, भरोसे की भी है। और यही भरोसा तय करेगा कि नीतीश कुमार की सीएम उम्मीदवारी बचेगी या बदलेगी।
आगे क्या?
राजनीतिक जानकारों का अनुमान है कि बीजेपी अभी चुपचाप माहौल देख रही है। चुनावी आँकड़े, समीकरण, जातिगत गणित सबका जोड़-घटाव चल रहा है। रिपोर्ट्स आने के बाद ही पार्टी कोई फाइनल फैसला लेगी। हो सकता है, फिर से नीतीश को आगे लाया जाए। या किसी नए को लॉन्च किया जाए। दोनों रास्ते में रिस्क है। दोनों में डर भी।
नीतीश कुमार खुद भी समझते हैं कि बीजेपी बिना उनके अधूरी है। पर राजनीति भरोसे पर नहीं, मजबूरी पर चलती है।
बीजेपी की चुप्पी बहुत कुछ कहती है
अभी बीजेपी न खुलकर ‘हां’ कह सकती, न ‘ना’। बीच में अटकी है। यही उसकी सबसे बड़ी मजबूरी भी है। और शायद यही डर भी कि कहीं वक्त से पहले कुछ बोल दिया तो सारा खेल बिगड़ न जाए।
सच कहें तो नीतीश कुमार की सीएम उम्मीदवारी पर बीजेपी की ये चुप्पी एक संकेत है। एक ऐसा संकेत जो बताता है कि बिहार की राजनीति में पुरानी परछाइयाँ अब भी नई सुबह को रोक रही हैं। आने वाले चुनाव में सब कुछ खुल जाएगा, लेकिन फिलहाल कहानी अधूरी लगती है। और बिहार की राजनीति में अधूरी कहानियाँ ही सबसे ज्यादा चलती हैं।
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