छपरा में खेसारी लाल यादव का नया दांव : क्या लालू का किला फिर संभल पाएगा?
27 अक्टूबर 2025, बिहार। ठंडी हवा चल रही थी, लेकिन छपरा की सियासत में गर्मी बढ़ गई है। भोजपुरी फिल्मों के सुपरस्टार खेसारी लाल यादव अब मंच पर नहीं, बल्कि चुनावी मैदान में हैं। जिस ज़मीन से लालू प्रसाद यादव ने कभी राजनीति की शुरुआत की थी, अब वहीं से एक नया चेहरा अपनी पहचान बनाने निकला है। लेकिन सवाल बड़ा है क्या खेसारी उस किले में फिर से आरजेडी को जीत दिला पाएंगे?
छपरा की कहानी, जहां से शुरू हुई बिहार की सियासत
कहते हैं, बिहार की राजनीति अगर समझनी है, तो छपरा से शुरुआत करो। यही वह जगह है जहां लालू प्रसाद यादव ने पहली बार जनता का दिल जीता था। समय बदला, लोग बदले, और सियासत के चेहरे भी। राजद का गढ़ धीरे-धीरे भाजपा के हाथों में चला गया। दो दशक से भाजपा यहां टिके हुए हैं। डॉ. सी.एन. गुप्ता की पकड़ मजबूत है। पर अब यह कहानी नया मोड़ ले रही है।
खेसारी लाल यादव का मैदान में उतरना
कभी पर्दे पर “देसी हीरो”, अब असली ज़िंदगी में “जनता के बीच।” खेसारी लाल यादव का चुनाव लड़ने का फैसला अचानक नहीं था। वे लंबे समय से कहते आए हैं “जो जनता का प्यार देता है, उसी के लिए कुछ करना चाहिए।” अब वही जनता उनके लिए उम्मीद की नज़र से देख रही है। पर राजनीति फिल्मों जैसी नहीं होती। यहां स्क्रिप्ट नहीं, हालात चलते हैं। छपरा की गलियों में यही चर्चा है क्या स्टारडम वोट में बदलेगा?
जातीय समीकरण अब भी सबसे बड़ा फैक्टर
छपरा का समीकरण उलझा हुआ है। 90 हजार वैश्य, 50 हजार राजपूत, 45 हजार यादव और करीब 39 हजार मुस्लिम वोटर। किसी का भी मूड बदल गया, तो खेल बदल जाएगा। भाजपा का भरोसा सवर्णों और शहरी वोट पर है। राजद अपने यादव-मुस्लिम गठजोड़ पर टिका है। खेसारी लाल यादव के सामने यही असली परीक्षा है – क्या वे इन सीमाओं से ऊपर उठ पाएंगे?
लालू प्रसाद यादव की विरासत और जनता की यादें
कई बुज़ुर्ग अब भी कहते हैं, “जब लालू बोले थे, तो दिल से बोले थे।” 1977 का वो साल, जब लालू ने पहली बार चुनाव जीता था। छपरा ने उन्हें वो पहचान दी, जो पूरे देश में गूंज गई। पर वक्त ने करवट ली। भाजपा ने सेंध लगाई। अब वही छपरा नए दौर में है लालू की यादें, भाजपा की हकीकत और खेसारी का सपना। यह सब कुछ एक ही ज़मीन पर टकरा रहा है।
खेसारी के सामने कठिन रास्ता, पर मौका भी बड़ा
खेसारी की छवि साफ है, जमीनी है। लोग कहते हैं, “वो हमारे जैसे हैं।” पर राजनीति में सिर्फ छवि नहीं, रणनीति भी चाहिए। भाजपा के पास संगठन है, पुराने कार्यकर्ता हैं, और प्रशासनिक पहुंच भी। खेसारी के पास है जनता की सहानुभूति और जज़्बा। कभी ये चीज़ें जीत दिलाती हैं, कभी नहीं। पर इतना तय है वे भीड़ खींचना जानते हैं, और वो भी दिल से।
आरजेडी की उम्मीदें खेसारी पर टिकीं
राजद को अब एक ऐसे चेहरे की ज़रूरत थी, जो जनता के बीच नया विश्वास जगा सके। तेजस्वी यादव का नाम तो है, पर ज़मीन पर असर अलग बात होती है। खेसारी लाल यादव से पार्टी को उम्मीद है कि वे पुराने गढ़ में फिर से नई ऊर्जा भरेंगे। लोगों में यह भावना है कि अब शायद कोई अपना लौट आया है। पर यह भावना वोट में बदलेगी या नहीं यही असली सवाल है।
छपरा की सड़कों से उठता सवाल बदलाव होगा क्या?
शहर की तंग गलियां, टूटी सड़कें, बेरोजगारी की बातें। लोग कहते हैं, “नेता आते हैं, वादे करते हैं, फिर गायब हो जाते हैं।” अगर खेसारी इन मुद्दों पर ईमानदारी से बोले, तो असर होगा। लोग अब जाति से ज़्यादा काम की बात करने लगे हैं। यह बदलाव छोटा है, पर महत्वपूर्ण। यही वो जगह है जहां से राजनीति का नया चेहरा निकल सकता है।
लड़ाई कठिन है, पर कहानी अभी बाकी है
बीजेपी का गढ़ मजबूत है। राजद को अपने पुराने वोटरों को वापस लाना होगा। और खेसारी लाल यादव को दोनों से आगे निकलना होगा। कहानी अब सिर्फ सीट की नहीं, भरोसे की है। क्या जनता नए चेहरे पर भरोसा करेगी? क्या लालू का किला फिर से संभल पाएगा? इन सवालों के जवाब अभी वक्त के पास हैं। पर इतना तय है छपरा इस बार फिर से बिहार की राजनीति का सबसे हॉट स्पॉट बन गया है।


