पहले प्यार, फिर इनकार और अब स्वीकार : कांग्रेस ने पप्पू यादव को स्टार प्रचारक बनाकर दिया बड़ा सियासी संकेत

बिहार की राजनीति में बदलाव की बयार दिख रही है। कांग्रेस ने पप्पू यादव को स्टार प्रचारक बनाकर दिया बड़ा सियासी संकेत। कभी दूरी बनाने वाली पार्टी अब उन्हें गले लगा चुकी है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के निर्देश पर कांग्रेस ने पप्पू यादव को स्टार प्रचारक बनाकर दिया एक मजबूत राजनीतिक संदेश पूरे देश को।

पहले प्यार, फिर इनकार और अब स्वीकार : कांग्रेस ने पप्पू यादव को स्टार प्रचारक बनाकर दिया बड़ा सियासी संकेत

पहले प्यार, फिर इनकार और अब स्वीकार: कांग्रेस ने आखिर क्यों अपनाया पप्पू यादव को?

 

कांग्रेस और पप्पू यादव की सियासी कहानी में नया ट्विस्ट

कभी दूर, तो कभी पास — यही है बिहार की राजनीति का असली रंग।   पहले कांग्रेस ने पप्पू यादव से किनारा कर लिया, कहा कि उनका स्टाइल ‘हमारे जैसा नहीं’।   फिर वक्त बदला, हालात बदले।   और अब वही कांग्रेस उन्हें अपने स्टार प्रचारकों में शामिल कर रही है।   यह अचानक नहीं, धीरे-धीरे पनपा रिश्ता है — जैसे सर्दी की सुबह में सूरज की गर्माहट धीरे-धीरे महसूस होती है।   दिलचस्प यह है कि कांग्रेस का यह फैसला अब पूरे विपक्ष को सोचने पर मजबूर कर रहा है।

 

2024 का नया चेहरा, नई चालें और पुरानी गलती का सुधार

कांग्रेस अब पहले वाली कांग्रेस नहीं दिखती।   इस बार राहुल गांधी और प्रियंका गांधी दोनों ने धरातल पर राजनीति की दिशा तय की है।   और बिहार में उन्हें मिला एक दमदार चेहरा — पप्पू यादव।   यह वही नेता हैं जिन्हें कुछ साल पहले कांग्रेस ने “बागी” कहकर नज़रअंदाज़ कर दिया था।   लेकिन अब वही पप्पू कांग्रेस के मंच से भीड़ को संबोधित करते नजर आएंगे।   सवाल उठता है — आखिर ये बदलाव कैसे?

 

पहले इनकार, अब स्वीकार का क्या मतलब?

2024 के इस मैच में कांग्रेस फील्ड पर उतर चुकी है और उसे हर रन की कीमत पता है।   पप्पू यादव के पास जमीनी पकड़ है।   वो गांव-गांव घूमते हैं, लोगों से सीधे बात करते हैं, तभी तो जनता उन्हें “अपना आदमी” कहती है।   कांग्रेस ने महसूस किया कि बिहार में जो भावनात्मक जुड़ाव पप्पू बना चुके हैं, वो पार्टी के लिए ऑक्सीजन जैसा हो सकता है।   वो चेहरा जो भीड़ को खींच सके, मंच पर मुद्दे को मानवीय भाषा में रख सके।   तो रही-सही दूरी अब खत्म होती दिख रही है।

 

राहुल गांधी की सोच में बड़ा बदलाव दिखा

राहुल गांधी अब सिर्फ पार्टी तक सीमित नहीं हैं।   उनकी यात्रा ने उन्हें अलग दृष्टिकोण दिया है।   उन्होंने समझा कि राजनीति में संवाद की खिड़कियाँ बंद नहीं करनी चाहिए।   कहा जाता है कि राहुल की टीम ने बिहार के ताज़ा राजनीतिक हालात का विश्लेषण किया और पाया कि पप्पू यादव को दूर रखना एक बड़ी रणनीतिक गलती हो सकती है।   राहुल ने निर्देश दिया — “जिन्हें जनता सुनती है, उन्हें हमारे साथ बोलने दो।”   बस फिर क्या था, कहानी पलट गई।

 

प्रियंका गांधी की भूमिका अहम रही

बिहार में प्रियंका गांधी की दिलचस्पी हमेशा खास रही है।   वो सॉफ्ट लेकिन असरदार हैं।   उन्होंने बार-बार कहा कि “हम राजनीति नहीं, रिश्ते बनाना चाहते हैं।”   सुनने में साधारण पर इसके पीछे गहरी समझ है।   प्रियंका जानती हैं कि कांग्रेस को बिहार में नए सिरे से भरोसा जीतना है, और पप्पू यादव जैसा चेहरा इसमें मददगार हो सकता है।   उनकी सोच साफ है — जो जनता से जुड़ता है, वही सियासत में टिकता है।

 

पप्पू यादव की वापसी किसी चमत्कार से कम नहीं

एक वक्त था जब राजनीतिक गलियारों में लोग हंसते थे — “कांग्रेस और पप्पू? असंभव।”   लेकिन देखिए, राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं।   आज वही नेता कांग्रेस की रैलियों में स्टार प्रचारक के तौर पर शामिल हो रहे हैं।   पप्पू ने हमेशा कहा, “मैं जनता का आदमी हूँ, पार्टी से ज़्यादा लोगों का भरोसा चाहता हूँ।”   लगता है कांग्रेस ने यह बात आखिरकार सुन ली है।

 

RJD और बाकी दलों में बेचैनी

महागठबंधन के भीतर अब खुसुर-पुसुर शुरू हो गई है।   आरजेडी में कुछ नेता इसे “कांग्रेस का शॉर्टकट” बता रहे हैं।   उन्हें डर है कि पप्पू की बढ़ती लोकप्रियता से यादव वोटों में सेंध लग सकती है।   दूसरी तरफ जेडीयू की टीम चुटकी ले रही है, “पुराने दुश्मन फिर दोस्त बने।”   लेकिन असल में कांग्रेस अब कोई मौका छोड़ना नहीं चाहती।   यह अब भावनाओं की नहीं, ज़मीनी समीकरण की लड़ाई है।

 

बिहार में कांग्रेस की नई चाल

कांग्रेस अब सिर्फ भाषणों से नहीं, लोगों के बीच उतर रही है।   उसकी रणनीति यह है कि हर क्षेत्र में एक ऐसा चेहरा खड़ा हो जो वहां के लोगों से जुड़ा हो।   बिहार में यह भूमिका पप्पू यादव बखूबी निभा रहे हैं।   उनकी छवि कॉन्ट्रोवर्शियल जरूर रही है, पर जनता के बीच उनकी ईमानदारी को लोग स्वीकार करते हैं।   कांग्रेस को अब वही जुझारूपन चाहिए।   यही वजह है कि दिल्ली के नेताओं ने इस जोखिम को लेने का फैसला किया।

 

क्या यह तालमेल टिकेगा?

यह सवाल बिल्कुल जायज़ है।   कांग्रेस और पप्पू यादव के रिश्ते आज भी उतने ही संवेदनशील हैं जितने शुरू में थे।   लेकिन दोनों जानते हैं कि राजनीति में अकेले टिकना मुश्किल है।   अगर यह साझेदारी सही दिशा में चली, तो बिहार की सियासत का चेहरा बदल सकता है।   हां, यह रिश्ता लंबा चलेगा या छोटा, यह जनता के हाथ में है।