हिंदी सिनेमा में असली घटनाओं पर बनी कॉमिक-थ्रिलर कम मिलती हैं। इसी बीच आई Inspector Zende Review की चर्चा इसलिए तेज है क्योंकि मनोज बाजपेयी फिर एक साधारण-से दिखने वाले, मगर चालाक अफसर के रोल में नजर आते हैं। यह अंदाज़ कई लोगो को फैमिली मैन की याद दिलाता है—जहां तेज दिमाग, सूखी हँसी और घरेलूपन साथ-साथ चलते हैं। सवाल यह है कि क्या यह फिल्म उस जादू को पकड़ पाती है, या बीच में ढीली पड़कर साधारण बन जाती है।
कहानी का ढांचा: ‘मशहूर अपराधी’ बनाम ‘सीधा-सादा लेकिन नुकीला’ पुलिस अफसर, बिल्ली-चूहे जैसा खेल
कहानी एक कुख्यात फरार अपराधी और एक जिद्दी पुलिस अफसर के बीच लुका-छिपी पर टिकी है। अपराधी का करिश्मा और भागने की आदत उसके दिमागी खेल को दिखाती है, वहीं इंस्पेक्टर जेन्दे का शांत स्वभाव, छोटे सुराग पकड़ने की क्षमता और जमीन से जुड़ा रवैया उसकी ताकत बनता है। सेटिंग में 70s–80s का एहसास, भीड़भाड़ वाली सड़कें, पुराने वाहन और थाने की खुरदुरी दीवारें अलग फ्लेवर जोड़ती हैं।
मनोज बाजपेयी की एक्टिंग: फैमिली मैन वाला टच, कम हंगामा—ज्यादा समझदारी और बारीकी
मनोज बाजपेयी का ‘अंडरप्ले’ हमेशा उनकी ताकत रहा है। यहां भी वे बिना शोर-शराबा मचाए अपने किरदार को जीवंत बनाते हैं। बातों के बीच हल्की-सी मुस्कान, टीम से सीधी-सरल ब्रीफिंग, और घर-परिवार के छोटे पलों के जरिए वे इंस्पेक्टर को इंसान बनाते हैं। यही ‘फैमिली मैन’ जैसी सादगी और बुद्धिमत्ता दर्शकों को जोड़ती है।
विलेन की मौजूदगी: करिश्मा है, पर लिखावट उतनी धारदार नहीं
विपक्षी किरदार में ग्लैमर और शैली की झलक मिलती है, लेकिन लिखावट उसे यादगार खलनायक बनाने से पहले ही रुक जाती है। कई दृश्यों में वह मुस्कुराता है, चुभती लाइनें बोलता है, पर उसके इरादे और दांव उतनी परतों में नहीं खुलते। अगर प्रतिद्वंदी और नुकीला होता, तो बिल्ली-चूहे का खेल और भी रोमांचक हो सकता था।
टोन और रफ्तार: ह्यूमर प्यारा है, मगर असमान; बीच का हिस्सा ढीला लगता है
फिल्म का ह्यूमर सूखा, हल्का और कई जगह चुटीला है। शुरुआती हिस्से में सेटअप अच्छा है और क्लाइमैक्स में ऊर्जा लौटती है, मगर बीच का भाग मंद पड़ जाता है। कुछ दृश्यों की लंबाई घटती तो प्रवाह बेहतर रहता और कॉमिक-थ्रिलर की कसावट बनी रहती।
निर्देशन और लेखन: विचार बढ़िया, एग्जीक्यूशन में ‘कंसिस्टेंसी’ की कमी
निर्देशन का इरादा स्पष्ट है—गंभीर विषय को हल्के-हल्के हास्य के साथ कहना। यह टोन कई दृश्यों में काम करता है, पर हर जगह एक-सा नहीं टिकता। लिखावट अगर खलनायक और पुलकित मोड़ों पर थोड़ी और मेहनत करती, तो कुल मिलाकर असर कहीं ज्यादा मजबूत होता।
तकनीकी पक्ष: प्रोडक्शन डिज़ाइन, पीरियड डिटेल और लोकेशन्स माहौल बनाते हैं
पुराने दौर की झलक सड़कों, कारों, कॉस्ट्यूम और ऑफिस सेटअप में साफ दिखती है। यह डिटेल फिल्म को ‘वक़्त’ देता है। कैमरा सरल रखकर कहानी को आगे बढ़ाता है। बैकग्राउंड म्यूज़िक सेवा-योग्य है, मगर कोई थीम कानों में टिकती नहीं। यह फिल्म के एडवेंचर टोन को और उभार सकता था।
भावनात्मक धागा: ‘ड्यूटी बनाम घर’—छोटे-छोटे पलों में गर्माहट
इंस्पेक्टर के घर के दृश्य छोटे हैं, पर असर छोड़ते हैं। ड्यूटी के बीच परिवार का संतुलन उसे ‘हीरो’ के बजाय ‘इंसान’ बनाता है। यही टच फैमिली मैन की याद जगाता है—कम बातें, ज्यादा भाव, बिना भारी संवादों के।
क्या देखें, क्या छोड़ें: वीकेंड के लिए हल्का-फुल्का क्राइम-चेस, पर उम्मीदें बहुत ऊंची न रखें
जो दर्शक मनोज बाजपेयी की परफॉर्मेंस के लिए फिल्म देखते हैं, उन्हें यहां भरपूर आनंद मिलेगा। हल्की-फुल्की क्राइम-चेस, पुराने जमाने की खुशबू और चुटीले पल वीकेंड व्यूइंग के लिए ठीक हैं। लेकिन कसी हुई स्क्रिप्ट और यादगार विलेन की तलाश में आए दर्शक थोड़ा अधूरापन महसूस कर सकते हैं।
वर्डिक्ट: मनोज ने संभाले रखा, वरना यह एक साधारण कॉमिक-थ्रिलर बनकर रह जाती
नतीजा साफ है—मनोज बाजपेयी फिल्म का सहारा हैं। उनकी पकड़ से कहानी कई जगह संभल जाती है। का सार यही है: अभिनेता चमका, दुनिया बनी, अंदाज़ अच्छा; पर स्क्रिप्ट की असमानता और टोन की उठापटक फिल्म को ‘बेहतरीन’ बनने से रोक देती है। अगर अगले भाग में खलनायक और टाइट राइटिंग मिले, तो यह दुनिया एक मजबूत फ्रेंचाइज़ का चेहरा बन सकती है।