बिहार चुनाव 2025 : महागठबंधन की बिसात और मोदी की सियासी चाल, कर्पूरी ठाकुर बने केंद्र
बिहार में सियासत का मौसम फिर गरम हो गया है। हर दल अपनी चाल चल चुका है, लेकिन इस बार एक नाम सबके केंद्र में है — जननायक कर्पूरी ठाकुर। कभी पिछड़ों की आवाज कहे जाने वाले कर्पूरी ठाकुर फिर से बिहार की राजनीति में जीवित हो गए हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने उनके गांव से प्रचार की शुरुआत कर एक सधी हुई सियासी चाल चली। और यही कदम अब चर्चाओं का हिस्सा बना हुआ है।
मोदी का कर्पूरी दांव, राजनीतिक संदेश साफ
प्रधानमंत्री मोदी ने कर्पूरी ठाकुर के गांव में पहुंचकर अपना चुनाव अभियान शुरू किया। लोगों ने उन्हें फूलों से स्वागत किया, भीड़ उम्मीद से भरी थी। उन्होंने कहा, “कर्पूरी जी का सपना था समाज में समानता और विकास का, हम वही पूरा कर रहे हैं।” यह लाइन सीधे जनता के दिल में उतर गई। यह सिर्फ भाषण नहीं था, यह एक रणनीतिक संदेश था। एनडीए की नजर अब साफ तौर पर अति पिछड़े वर्ग पर है, जिसे बिहार की सत्ता की चाबी कहा जाता है।
महागठबंधन ने पहले बनाई थी योजना
बिहार का चुनावी खेल शुरू भले मोदी ने किया हो, लेकिन पहला कदम महागठबंधन ने उठाया था। वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम पद के चेहरे के रूप में आगे कर, महागठबंधन ने अति पिछड़े वर्ग को साधने का संकेत दिया। लोगों के बीच ये संदेश गया कि “हम उन लोगों की बात करेंगे जिनकी आवाज हमेशा कमजोर रही।” इस रणनीति से महागठबंधन ने विपक्ष के पाले में नई उम्मीद जगाई थी। लेकिन मोदी की रैली ने जैसे इस पूरी बिसात पर नई बाजी पलट दी।
कर्पूरी ठाकुर क्यों बने राजनीतिक केंद्र
कर्पूरी ठाकुर बिहार की राजनीति के प्रतीक हैं। वो सिर्फ एक नेता नहीं, एक सोच थे — जो गहराई से समाज में उतर चुकी थी। महागठबंधन लंबे समय से खुद को उनकी विचारधारा का उत्तराधिकारी बताता रहा है। पर जब मोदी ने कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की घोषणा की थी, उसी दिन खेल बदल गया था। अब बीजेपी कर्पूरी की छवि को विकास और आत्मनिर्भरता से जोड़कर पेश कर रही है। जबकि महागठबंधन उन्हें सामाजिक न्याय का प्रतीक बताकर जनता से भावनात्मक रिश्ता जोड़ने की कोशिश कर रहा है।
कर्पूरी: अब विचार नहीं, चुनावी ताकत
अब कर्पूरी ठाकुर सिर्फ अतीत की बात नहीं रहे। वे इस चुनाव की धुरी बन गए हैं। मोदी जब उनके गांव गए तो मंच पर हर तरफ “जननायक जीवित हैं” के नारे सुनाई दे रहे थे। लोगों की भीड़ देखकर लगा मानो इतिहास दोहराया जा रहा हो। मोदी ने गांव की सड़कों से होते हुए जनता को संबोधित किया, और कहा कि “हमारा लक्ष्य वही है जो कर्पूरी जी ने तय किया था।” ये एक राजनीतिक बयान होने के साथ भावनात्मक अपील भी थी।
महागठबंधन के सामने नई चुनौती
तेजस्वी यादव और मुकेश सहनी ने जो सामाजिक समीकरण बिछाया था, अब मोदी ने उसे तोड़ने की कोशिश की है। महागठबंधन ने जैसे गरमी में पहला ठंडा पानी गिराया, वैसे मोदी ने उसी पानी की धार को अपनी तरफ मोड़ लिया। राजनीतिक विशेषज्ञ कह रहे हैं – “इस बार वोट विकास बनाम भावनाओं में बंट सकता है।” विपक्ष इसे भावनात्मक राजनीति बता रहा है, लेकिन बीजेपी इसे ‘समाज के हर तबके के सम्मान की यात्रा’ बता रही है।
अति पिछड़ों की भूमिका फिर अहम
बिहार की राजनीति का समीकरण अब भी अति पिछड़ों पर टिकता है। यह वर्ग करीब 36 प्रतिशत वोट रखता है। 2015 में महागठबंधन ने इस पर दावा किया था, लेकिन NDA ने 2020 में इसे अपने पाले में खींच लिया। इस बार फिर वही वोट तय करेंगे कि सत्ता की कुर्सी किसे मिलेगी। मोदी की रैली में इस्तेमाल हुए शब्द – “कर्पूरी ठाकुर का सपना अब साकार होगा” – वही कोशिश है, जो बिहार के हर गांव तक संदेश भेज रही है।
जोश में भावनाएं, भाषण में निहित संदेश
मोदी की रैली सामान्य नहीं थी। हर पंक्ति में एक सोच थी, एक टारगेट भी। उन्होंने कर्पूरी ठाकुर की विरासत को सम्मान दिया लेकिन साथ ही विपक्ष को यह एहसास कराया कि अब भावनाओं की राजनीति पर सिर्फ एकाधिकार की बात नहीं की जा सकती। भीड़ बार-बार मोदी का नाम ले रही थी, नारे गूंज रहे थे – “कर्पूरी जी का काम, मोदी का नाम।” यह नारा चुनावी रणनीतिकारों के लिए अब मापन का पैमाना बन गया है।
महागठबंधन भी पीछे हटने को तैयार नहीं
हालांकि तेजस्वी यादव और मुकेश सहनी ने संकेत दिया है कि वे अब अपने प्रचार का रुख और भावनात्मक बनाएंगे। सहनी बोले, “कर्पूरी ठाकुर हमारे भी आदर्श थे, लेकिन हम सिर्फ प्रतीकों की नहीं, हिस्सेदारी की राजनीति करते हैं।” इस बयान से साफ है कि महागठबंधन इस सियासी मुकाबले को भावनात्मक से सामाजिक बना देना चाहता है। दोनों ओर से अब पूरी ताकत झोंकी जाएगी।


