राजनीति में अनिश्चितता ही एकमात्र निश्चित चीज़ होती है। और जब एग्जिट पोल की बात आती है, तो यह अनिश्चितता और भी दिलचस्प हो जाती है। इस बार के ताज़ा एग्जिट पोल में जो तस्वीर उभर रही है, उसने **महागठबंधन** के खेमे में फिर से उम्मीद जगा दी है। जहां कुछ चैनलों ने बीजेपी गठबंधन को बढ़त दी थी, वहीं कुछ सर्वेक्षण अब एकदम उल्टी दिशा दिखा रहे हैं — यानी बंपर बहुमत का अनुमान महागठबंधन की ओर झुकता नज़र आ रहा है।
जनता का मूड पलटता नज़र आया
दिलचस्प बात यह है कि शुरुआती रुझानों में जो मतदाता चुप दिखाई दे रहे थे, वही अब नतीजों का रुख बदलते दिख रहे हैं। गांवों में, छोटे कस्बों में और यहां तक कि शहरी इलाकों के कुछ हिस्सों में भी लोग कह रहे हैं — "इस बार थोड़ा संतुलन होना चाहिए।" यही भावना शायद एग्जिट पोल के आंकड़ों में उतर रही है।

मुझे याद है 2015 का चुनाव
एक पत्रकार के तौर पर मैंने 2015 में पटना में एग्जिट पोल के दिन बिताए थे। पूरा मीडिया सेंटर तब भी एक तरफा माहौल बना रहा था कि बीजेपी की जीत तय है। लेकिन जब नतीजे आए, तो वही महागठबंधन जिसने "संघर्ष" के नाम पर एक साथ हाथ मिलाया था, उसने खेल पलट दिया था। आज फिर वही माहौल बनता दिख रहा है — बस चेहरे और मंच बदले हैं, पर हवा का रुख वैसा ही है।
युवा वोटरों की भूमिका अहम
इस बार एग्जिट पोल में जो सबसे रोचक पहलू उभरकर आया है, वो है **युवा वोटरों** का झुकाव। पहली बार वोट डालने वाली पीढ़ी, जो न सोशल मीडिया के प्रचार में फंसी और न पुरानी सियासी जड़ों में, उसने कई जगहों पर अप्रत्याशित मतदान किया है। शायद इसी वजह से सीटों का गणित बिखर रहा है और राजनीतिक विश्लेषक भी अब कहने लगे हैं — “मुकाबला खुला है।
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महागठबंधन की चुनौती अभी खत्म नहीं हुई
सच कहा जाए तो **महागठबंधन** के सामने सबसे बड़ी परीक्षा अब शुरू होती है। अगर एग्जिट पोल के ये संकेत वास्तविक नतीजों में बदलते हैं, तो इसका मतलब होगा कि लोगों ने विकास और सामाजिक समीकरणों के बीच नया संतुलन खोज लिया है। लेकिन अगर ये आंकड़े उलटते हैं, तो विपक्ष के लिए आत्ममंथन का वक्त होगा।
एक व्यक्तिगत एहसास
राजनीति सिर्फ आंकड़ों का खेल नहीं है, ये भरोसे और भावनाओं की लड़ाई भी होती है। मैं जब भी चुनाव के मौसम में सड़कों पर लोगों से बात करता हूं, तो एहसास होता है कि भारत का मतदाता अब पहले से कहीं ज़्यादा समझदार और संवेदनशील हो चुका है। वो अब सिर्फ वादों पर नहीं, अनुभवों पर वोट देता है।
अब नज़रें नतीजों पर
एग्जिट पोल भले ही तस्वीर दिखा रहे हों, लेकिन असली तस्वीर आने में अभी वक्त है। चुनाव आयोग की गिनती के दिन ही तय करेगा कि ये उम्मीद की लौ स्थायी बनती है या फिर राजनीति के इतिहास में एक और “अगर-मगर” बनकर रह जाती है।
अंतिम बात
एग्जिट पोल चाहे किसी भी ओर झुकें, एक बात तय है — भारतीय लोकतंत्र जिंदा है, और जनता हर बार अपनी राय से सबको चौंका देती है। शायद यही इसकी खूबसूरती है।


