प्रतापगढ़ की ठहरी हुई सुबह अचानक हड़कंप में बदल गई, जब शहर के चर्चित समाज कल्याण अधिकारी का शव उनके घर से बरामद हुआ। सरकारी नौकरी, सामाजिक जिम्मेदारी और पारिवारिक जीवन के बीच जूझते इस अधिकारी ने आख़िरी कदम क्यों उठाया, यह सवाल आज पूरे जिले को परेशान कर रहा है। घटना ने न सिर्फ़ प्रशासन को, बल्कि आम लोगों को भी झकझोर कर रख दिया है।
शहर की शांत सुबह में सनसनी, अफसर के निधन की खबर से लोग सन्न
सोमवार की भोर में पुलिस कंट्रोल रूम को एक फ़ोन कॉल मिला। कॉल करने वाला व्यक्ति घबराई आवाज़ में सिर्फ़ इतना कह पाया, “सर, जल्दी आइए, कुछ अनहोनी हो गई है।” जब पुलिस टीम अधिकारी के घर पहुँची, तो दरवाज़ा अंदर से बंद था। पड़ोसी बताते हैं कि रात क़रीब तीन बजे तक घर से तेज़ आवाज़ें आ रही थीं, लेकिन किसी ने अंदाजा नहीं लगाया कि नौबत इतनी भयावह हो सकती है।
घटनास्थल का मुआयना: दरवाज़ा टूटा, पंखे से लटकता मिला शव
पुलिस ने दरवाज़ा तोड़ा तो ड्राइंग-रूम के पंखे से अफसर का शव झूल रहा था। फाँसी का फंदा साधारण नायलॉन की रस्सी से बनाया गया था, जो घर के स्टोर रूम में रखी रहती थी। कमरे में सामान बिखरा हुआ था, काग़ज़ के कुछ टुकड़े ज़मीन पर पड़े थे, लेकिन कोई सुसाइड नोट नहीं मिला। पुलिस ने शव को नीचे उतार कर पोस्ट-मार्टम के लिए भेज दिया।
पुलिस की शुरुआती जांच: सुसाइड नोट नहीं मिला, पत्नी से हुई बहस बनी वजह?
जांच अधिकारी का कहना है कि घटना से ठीक पहले अफसर का पत्नी से जोरदार विवाद हुआ था। पड़ोसियों ने चीख-पुकार और दरवाज़ा पटकने की आवाज़ सुनी। फिलहाल घर की तलाशी जारी है। पुलिस मोबाइल फोन का कॉल रिकॉर्ड और चैट हिस्ट्री खंगाल रही है, ताकि विवाद की असली वजह सामने आ सके। शुरुआती अनुमान है कि घरेलू तनाव ने इस दुखद फैसले को जन्म दिया।
पड़ोसियों की गवाही और चुप्पी, सरकारी तंत्र पर उठे सवाल
पड़ोसी बताते हैं कि अधिकारी ज़्यादातर शांत स्वभाव के थे, लेकिन पिछले कुछ महीनों से उन्हें तनाव में देखा जा रहा था। कुछ का मानना है कि दफ़्तर में बढ़ते दबाव और घर में आर्थिक दिक़्क़तों ने परिस्थिति को बिगाड़ा। दूसरी ओर, कई लोग खुलकर कुछ भी कहने से बच रहे हैं। सरकारी महकमे में तैनात एक कर्मचारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि विभागीय ट्रांसफर, फाइलों का बोझ और आकस्मिक ऑडिट जैसी बातें अफसर को परेशान कर रही थीं।
मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी: दबाव में जी रहे हैं अधिकारी
यह घटना एक बार फिर साबित करती है कि मानसिक स्वास्थ्य अब भी हाशिये पर है। अधिकारी हों या आम नागरिक, जब तक खुलकर बात नहीं होगी, तब तक समाधान संभव नहीं। विशेषज्ञ कहते हैं कि जो लोग जिम्मेदार पदों पर हैं, उनके ऊपर दोगुना दबाव होता है—एक तरफ़ जनता की उम्मीद, दूसरी तरफ़ निजी जीवन की चुनौतियाँ। अगर समय रहते उचित परामर्श मिल जाए, तो कई जिंदगियाँ बच सकती हैं।
समाज कल्याण विभाग में शोक की लहर, कामकाज पर पड़ेगा असर
दफ्तर में सहकर्मियों की आंखें नम हैं। फाइलों के ढेर के बीच पसरा सन्नाटा मानो चीख-चीख कर कह रहा हो कि इंसान मशीन नहीं है। अधिकारियों का मानना है कि इस आकस्मिक मौत से विभाग के कई अहम प्रोजेक्ट प्रभावित हो सकते हैं। राज्य स्तर पर चल रही कई योजनाएँ अब नए अफसर के आने तक धीमी पड़ सकती हैं।
रोकथाम के उपाय: हेल्पलाइन नंबर और परामर्श केंद्र क्यों जरूरी
चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार, आत्महत्या की हर घटना के पीछे कई परते होती हैं। सामाजिक दबाव, आर्थिक दिक़्क़त, और पारिवारिक तनाव साथ जुड़कर व्यक्ति को असहाय बना देते हैं। हेल्पलाइन नंबर और काउंसलिंग सेंटर दूर बैठी समस्या का हल नहीं, बल्कि ज़मीन पर मौजूद सहारा हैं। जिले में मौजूद सरकारी अस्पताल में मनोचिकित्सा विभाग की सप्ताह में सिर्फ़ दो ओपीडी लगती हैं, जो काफ़ी नहीं है।
अधिकारी का निजी सफर: छोटे शहर से जिला मुख्यालय तक का संघर्ष
अफसर मूलतः छोटे से कस्बे के रहने वाले थे। पढ़ाई में अव्वल आए, प्रतियोगी परीक्षा पास कर जिला मुख्यालय पहुँचे। शुरुआती दौर में किराए के कमरे से दफ़्तर तक साइकिल से जाते थे। बाद में सरकारी आवास मिला, गाड़ी आई, लेकिन शांति नहीं। कामयाबी के बावजूद निजी चुनौतियाँ बनी रहीं। परिचित बताते हैं कि वह अपनी नौकरी पर गर्व करते थे, पर हाल की चुनौतियों ने उन्हें तोड़ दिया।
सिस्टम और समाज दोनों को सीख मिलने की दरकार
प्रतापगढ़ की यह दुखद घटना सिर्फ़ व्यक्तिगत त्रासदी नहीं, बल्कि सामाजिक चेतावनी भी है। समाज कल्याण अधिकारी ने की आत्महत्या जैसे बड़े शीर्षक अख़बारों में छपेंगे, मगर असली एजेंडा होना चाहिए—ऐसी घटनाएँ कैसे रोकी जाएँ। पारिवारिक संवाद, दफ़्तर का सहयोगी माहौल और मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देना अब टालने वाला मुद्दा नहीं रहा। अगर हम आज नहीं चेते, तो कल कोई और परिवार इस अंधेरे में खो सकता है।