आरजेडी-कांग्रेस ने टिकट बंटवारे में उड़ाई अपने ही नारे की धज्जियां
बिहार की सियासत में एक बात तय है — वादे जल्दी किए जाते हैं, निभाने में वक्त लगता है। लेकिन इस बार तो वादा भी कुछ घंटों में हवा हो गया। **आरजेडी और कांग्रेस** ने जिस नारे से जनता के बीच उम्मीद जगाई थी, अब वही उनका गले की फांस बन गई है। जाति जनगणना के आधार पर "जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी" का दावा अब टिकट सूची में कहीं नहीं दिखता।
सर्वे से उम्मीदें, टिकट से निराशा
याद कीजिए, जब कास्ट सर्वे हुआ था तो सब उत्साहित दिखे। हर जाति, हर वर्ग को लगा कि उसकी गिनती आखिर मायने रखेगी। लेकिन जैसे ही टिकट की बारी आई, सब उम्मीदें टूट गईं। **आरजेडी और कांग्रेस** ने नए नामों की जगह पुराने चेहरों को प्राथमिकता दी। अति पिछड़े वर्गों को बस सांत्वना पुरस्कार की तरह दो-चार टिकट दे दिए गए। बाकी सब वही पुराने समीकरण।
कहानी फिर वही — जातीय आंकड़े पीछे
दोनों दलों ने बार-बार कहा था कि सीट बंटवारा "समान प्रतिनिधित्व" के आधार पर होगा। लेकिन सवाल उठने लगे हैं कि अगर सर्वे सिर्फ दिखावे के लिए था, तो इतने करोड़ रुपये खर्च क्यों हुए? राजनीतिक सूत्र बताते हैं कि अंदरखाने सब तय था। “जीतने वाला कौन है, वही टिकट पाएगा,” यही मानक रहा। **आरजेडी और कांग्रेस** ने फिर से अनुभव पर भरोसा जताया, आंकड़ों पर नहीं।
अति पिछड़े पीछे रहे, जैसे हमेशा
बिहार में अति पिछड़े वर्ग की आबादी करीब 36 प्रतिशत है। लेकिन टिकटों में उनकी हिस्सेदारी मुश्किल से 10 प्रतिशत पहुंच पाई। यानी तीन लोगों में से दो को फिर पीछे छोड़ दिया गया। गांव की चौपालों से यही आवाज़ आ रही है — “हमसे वोट मांगने हर बार आते हैं, लेकिन टिकट कभी नहीं देते।” और यह नाराजगी अब धीरे-धीरे खुलकर दिखने लगी है।
दलित और कमजोर जातियाँ – बस नाम भर
दलित और मुसलमान वर्ग की भी स्थिति लगभग वैसी ही है। जिन समुदायों के भरोसे **आरजेडी और कांग्रेस** की सरकारें बनीं, उन्हें इस बार सूचियों में जगह ही नहीं मिली। पुराने चेहरों, पुराने परिवारों और पुराने समीकरणों का बोलबाला रहा। ऐसा लग रहा है मानो बिहार की राजनीति नए चेहरे से डरती है।
वोट बैंक और विचारधारा में दूरी
लालू यादव के वक्त ‘समान अवसर’ की राजनीति एक आंदोलन थी। उस दौर में जाति नहीं, प्रतिनिधित्व मायने रखता था। लेकिन अब सब कुछ उलट गया है। आज की **आरजेडी और कांग्रेस** आंकड़ों से खेल रही हैं। नारा वही, नीति कुछ और। विशेषज्ञ कहते हैं कि इस बदलाव ने इन दलों को विचारधारा से दूर कर दिया है। “सामाजिक न्याय” अब मंच से ज्यादा एक नारा बन चुका है।
राजनीतिक मजबूरी या चाल?
पार्टी नेताओं का कहना है – टिकट देने का निर्णय "विजयी क्षमता" के आधार पर होता है। लेकिन सवाल उठता है, फिर आपने "जनगणना आधारित राजनीति" का प्रचार क्यों किया? क्या यह सिर्फ चुनावी भाषण का हिस्सा था? कुछ वरिष्ठ नेताओं ने खुद माना कि “कई छोटे वर्गों को इसलिए मौका नहीं मिला क्योंकि वे असरदार नहीं माने गए।” यही बयान सबकी असल सोच खोल देता है।
आंकड़ों की राजनीति और जनता की चुप्पी
आंकड़े कभी झूठ नहीं बोलते। कास्ट सर्वे के अनुसार यादव समाज की संख्या साढ़े चौदह प्रतिशत है, पर उन्हें 30 प्रतिशत से अधिक टिकट मिले। वहीं अति पिछड़े, जो आबादी में दोगुने हैं, उन्हें मुश्किल से थोड़ा हिस्सा मिला। जनता सब देख रही है, और अब सवाल ये है कि जब सर्वे का फायदा उन्हें नहीं मिला, तो वोट क्यों देंगे? यह चुप्पी आगे बड़ा असर छोड़ेगी।
कांग्रेस की दुविधा और आरजेडी का दबदबा
गठबंधन राजनीति में कांग्रेस की स्थिति वैसे भी कमजोर रही है। इस बार भी वही हुआ। सीटें कम मिलीं और टिकट तय करने का जोर **आरजेडी** के पास रहा। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने नाराज होकर दिल्ली तक शिकायत की, पर कोई सुनवाई नहीं हुई। अंदर से सब मानते हैं कि आरजेडी अब ‘बिग ब्रदर’ की भूमिका में आ चुकी है, और कांग्रेस के पास कोई विकल्प नहीं बचा।
जनता का मूड अब बदल रहा है
गांवों और कस्बों में चर्चा तेज है। लोग कह रहे हैं कि "नारा बांट दिया, टिकट बचा लिया।" कई इलाके ऐसे हैं जहां जातीय सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक खास वर्गों को वरीयता मिलनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। **आरजेडी और कांग्रेस** की इस चालाकी ने जनता का भरोसा थोड़ा हिला दिया है। अब यह देखना बाकी है कि यह नाराजगी वोटों में बदलती है या नहीं।


