मानसून सत्र 2025 हंगामे के साए में पारित हुए 26 विधेयक
नई दिल्ली।भारत की संसद का मानसून सत्र 2025 गुरुवार, 21 अगस्त को संपन्न हो गया। यह सत्र अपनी लगातार हलचल और विपक्षी दलों के रोज़ाना विरोध प्रदर्शनों के कारण सबसे चर्चित और विवादित सत्रों में गिना जा रहा है। हंगामों और लगातार स्थगन के बावजूद सरकार ने 26 विधेयक पारित कराने में कामयाबी हासिल की।
विपक्षी हंगामे बने सत्र की मुख्य पहचान
इस बार संसद में सबसे अधिक समय विपक्षी दलों के विरोध प्रदर्शनों ने घेर लिया। बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) को लेकर विपक्ष ने सबसे तेज़ हमले बोले। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी समेत अनेक नेताओं ने आरोप लगाया कि इस प्रक्रिया के माध्यम से करोड़ों मतदाताओं को सूची से बाहर करने की साज़िश रची जा रही है। इसे उन्होंने "संस्थागत चोरी" करार दिया।इसके अलावा महंगाई, बेरोज़गारी, केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग और हालिया साम्प्रदायिक झड़पों जैसे मुद्दों पर चर्चा की मांग को लेकर भी विपक्ष ने बार-बार सदन का बहिष्कार और वाकआउट किए। कई मौकों पर हंगामा इतना बढ़ा कि दोनों सदनों की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी।
किन-किन विधेयकों पर लगी मुहर
लंबे विरोध और बाधाओं के बावजूद सरकार ने कई महत्वपूर्ण विधेयक पारित करा लिए।लोकसभा में ऑनलाइन गेमिंग विनियमन एवं प्रोत्साहन विधेयक, 2025, आयकर विधेयक, 2025,राष्ट्रीय खेल संचालन विधेयक, 2025 और खनिज तथा खनन विकास संशोधन विधेयक, 2025 जैसे अहम प्रस्ताव पारित हुए।राज्यसभा ने समुद्री व्यापार और शिपिंग से जुड़े विधेयक पास किए, जिनमें बिल ऑफ लेडिंग विधेयक, 2025, कैरिज ऑफ गुड्स बाई सी विधेयक, 2025 और कॉस्टल शिपिंग विधेयक, 2025 प्रमुख रहे।कुल मिलाकर यह साफ दिखा कि विधायी एजेंडे को आगे बढ़ाने में सरकार सफल रही, जबकि विपक्ष की आवाज़ ज्यादातर वॉकआउट और शोर-शराबे में दब गई।
ऑपरेशन सिंदूर पर हुई गंभीर बहस
पूरे सत्र में केवल एक मुद्दा ऐसा रहा जिस पर सत्ता और विपक्ष दोनों दलों ने गंभीर चर्चा की—ऑपरेशन सिंदूर। यह सैन्य कार्रवाई 22 अप्रैल को हुए पहलगाम आतंकी हमले के जवाब में की गई थी, जिसमें 26 निर्दोष लोग मारे गए थे।रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सदन में इसे “सटीक, सीमित और गैर-उत्तेजक कार्रवाई” बताया, जिसका मक़सद पाकिस्तान और पीओके में आतंकी ढांचे को ध्वस्त करना था। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने भी स्पष्ट किया कि अब भारत "रणनीतिक संयम" की नीति से आगे बढ़ चुका है और आतंकवाद का जवाब अपने तरीके से देने में सक्षम है।
संसद सत्र के लोकतांत्रिक मायने
हर बार की तरह इस बार भी मानसून सत्र से लोगों को उम्मीद थी कि संसद में आम जनता से जुड़े मुद्दों पर गंभीर और विस्तृत चर्चा होगी। लेकिन भारी हंगामे और बाधित कार्यवाही ने लोकतंत्र के सबसे बड़े मंच की गरिमा को प्रभावित किया। संसद में राजनीतिक दलों के बीच संवाद की गिरती गुणवत्ता चिंता का विषय बन गई है।राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि संसद महज़ बहस या आरोप-प्रत्यारोप का अखाड़ा नहीं, बल्कि नीति-निर्धारण की जनउत्तरदायी संस्था है। कई विपक्षी सांसदों का कहना है कि सरकार की ओर से चर्चा से भागने और संवाद का वातावरण बाधित करने की कोशिशें लोकतांत्रिक मूल्य के खिलाफ है, वहीं सरकार का तर्क है कि विपक्ष का रवैया केवल रुकावट डालने वाला रहा।
महत्वपूर्ण बिल्स पर सरसरी नजर
जो विधेयक इस बार दोनों सदनों से पारित किए गए, उनमें से कई का सीधा असर जनता पर पड़ेगा।ऑनलाइन गेमिंग में विनियमन इससे डिजिटल दुनिया में युवाओं के भविष्य एवं आर्थिक गतिविधियाँ प्रभावित होंगी।खेल संचालन कानून इससे राष्ट्रीय खेल संस्थाओं के पारदर्शी संचालन का दावा किया जा रहा है।खनन और खनिजों पर संशोधन इससे राज्यों को रॉयल्टी और सामाजिक विकास फंड जैसे मुद्दों पर नया अधिकार मिलेगा।शिपिंग और समुद्री विधेयक भारत के लॉजिस्टिक्स और समुद्री व्यापार को नई दिशा की उम्मीद बंधी है।हालांकि, ये विधेयक विपक्ष की भागीदारी के बगैर पारित हुए, इसलिए उनकी वैधता और व्यापक स्वीकार्यता को लेकर भी कुछ सवाल उठाए जा रहे हैं।
संसद के नये संकेत और जनता की उम्मीदें
इस बार का सत्र बताता है कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर संसद में मिलकर काम करना कितना चुनौतीपूर्ण हो गया है। संसद में विपक्ष की भूमिका लोकतंत्र को मजबूत करने में बेहद अहम है; सरकार को भी आलोचना और सुझाव के लिए जगह मिलनी चाहिए, और विपक्ष को भी अपने विरोध का तरीका बदलने की जरूरत है ताकि संसद में ठोस विमर्श हो सके।आम नागरिकों की नजर में यह सत्र काफी हद तक हताशाजनक रहा, क्योंकि न तो उनकी ज्वलंत समस्याओं पर सार्थक चर्चा हो सकी और न ही सरकार-विपक्ष के बीच कोई सहमति की उम्मीद दिखी।
क्या आगे कुछ बदल पाएगा?
आने वाले शीतकालीन सत्र के मद्देनजर यह जरूरी है कि दोनों पक्ष आगे आकर संवाद की बहाली करें। यह देशवासियों की सबसे बड़ी जरूरत है कि जनता की आवाज़ संसद में सुनी जाए, न कि राजनीतिक हंगामे में दब जाए। भारत के लोकतंत्र को मज़बूत बनाने के लिए संवाद का रास्ता ही सबसे कारगर है।