Shankaracharya Bihar Election : में शंकराचार्य क्यों लड़वाएंगे अपने उम्मीदवार?
बिहार चुनाव में इस बार एक अलग तरह की चर्चा देखने को मिल रही है। शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने अचानक अपने उम्मीदवार उतारने का ऐलान कर सबको चौंका दिया है। उनका कहना है कि यह निर्णय उन्होंने राजनीतिक महत्वाकांक्षा से नहीं बल्कि गाय को राष्ट्रमाता घोषित कराने के मुद्दे पर सभी दलों की चुप्पी के कारण लिया है। जनता के बीच यह कदम कितना असर डालेगा, यह चुनावी नतीजों के बाद ही साफ हो सकेगा।
बिहार विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे सियासी माहौल तेज होता जा रहा है। लेकिन इस बार एक ऐसा ऐलान हुआ जिसने सबका ध्यान खींच लिया है। किशनगंज पहुंचे शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद ने साफ कहा कि उन्हें मजबूरी में चुनावी मैदान में उम्मीदवार उतारने पड़ रहे हैं। यह फैसला उन्होंने किसी राजनीतिक महत्वाकांक्षा से नहीं बल्कि एक गंभीर कारण की वजह से लिया है। उनका कहना है कि उन्होंने देश की कई बड़ी राजनीतिक पार्टियों के दिल्ली स्थित कार्यालयों का दौरा किया और उनसे बार-बार एक ही प्रश्न पूछा – आखिर गाय को राष्ट्रमाता घोषित करने में बाधा क्या है? लेकिन अफसोस की बात यह है कि किसी भी राष्ट्रीय दल ने अब तक अपना रुख इस मुद्दे पर स्पष्ट नहीं किया। यही कारण है कि वे अब खुद बिहार की इस विशाल लोकतांत्रिक प्रक्रिया में कदम रख रहे हैं। उनकी नजर सिर्फ सत्ता पाने पर नहीं बल्कि समाज को एक वैचारिक संदेश देने पर है।
यह पहली बार नहीं है जब कोई धार्मिक या सामाजिक नेतृत्व करने वाला व्यक्ति राजनीतिक मंच की ओर बढ़ा हो। लेकिन शंकराचार्य का यह कदम इसलिए खास है क्योंकि वे इसे ‘मजबूरी’ बता रहे हैं। उन्होंने कहा कि अगर देश की सबसे अहम धरोहर, गौ माता, के सम्मान का सवाल उठाने में सभी दलों को चुप्पी साधनी है, तो फिर उन्हें ही यह जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उनका उद्देश्य नफरत की राजनीति करना नहीं है, बल्कि भारतीय परंपरा और संस्कृति की रक्षा करना है।
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राष्ट्रीय दलों की चुप्पी और शंकराचार्य की नाराज़गी
जब किसी बड़े धार्मिक नेता की आवाज़ को नज़रअंदाज़ किया जाता है तो समाज में चर्चा होना स्वाभाविक है। शंकराचार्य ने कहा कि उन्होंने कांग्रेस, भाजपा, जेडीयू, आरजेडी समेत कई दलों के दफ्तर जाकर यह जानने की कोशिश की कि वे गौ माता को राष्ट्र माता बनाने के प्रस्ताव पर क्या सोचते हैं। लेकिन हर जगह चुप्पी ही हाथ लगी। किसी ने भी हाँ या ना में जवाब नहीं दिया। यह स्थिति उनके लिए निराशाजनक थी। उन्होंने कहा कि राजनीति सिर्फ सत्ता का खेल नहीं हो सकता, इसमें समाज और संस्कृति के मूल्यों की रक्षा भी शामिल होनी चाहिए।
शंकराचार्य का यह भी कहना है कि जब नेताओं से सवाल पूछे जाते हैं तो उन्हें जनता के सामने ईमानदारी से जवाब देना चाहिए। अगर वे सिर्फ वोटबैंक की राजनीति में उलझकर महत्वपूर्ण मुद्दों से आंखें मूंदते रहेंगे तो फिर समाज कैसे आगे बढ़ेगा? उनकी नाराज़गी इस बात को लेकर ज्यादा है कि जिन दलों के पास लाखों कार्यकर्ता और करोड़ों रुपयों का चुनावी बजट है, वे भी इस विषय पर बोलने से बचते रहे। इस चुप्पी ने उन्हें गहरे तक चोट पहुंचाई, और यहीं से बिहार चुनाव में प्रत्याशी उतारने का निर्णय लेना पड़ा।
गौ माता को राष्ट्र माता बनाने की मांग
भारत में गौ माता का सम्मान हजारों सालों से होता आया है। वे केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि कृषि और ग्रामीण जीवन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। दूध से लेकर खेती-बाड़ी और यहां तक कि औषधीय गुणों तक, गाय भारतीय समाज का अनमोल हिस्सा है। शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद का तर्क है कि यदि देश की संसद संविधान में संशोधन कर कई अन्य विषयों पर फैसले ले सकती है तो फिर गाय को राष्ट्र माता घोषित करने में अड़चन क्यों?
उन्होंने इस मांग को राजनीतिक लाभ के लिए नहीं बल्कि सांस्कृतिक विरासत को मजबूत करने के लिए पेश किया है। उनका कहना है कि यह सिर्फ एक धार्मिक आग्रह नहीं बल्कि भारतीय सभ्यता की पहचान से जुड़ा हुआ प्रश्न है। अगर सभी दल इस विषय पर एकजुट होकर आगे आते तो उन्हें चुनावी मैदान में उतरने की जरूरत ही महसूस नहीं होती। लेकिन जब चुप्पी हर ओर हावी थी, तब उन्होंने खुद यह जिम्मेदारी लेने का फैसला कर लिया।
बिहार की राजनीति में शंकराचार्य की एंट्री
बिहार चुनाव वैसे ही कई कारणों से चर्चाओं में रहते हैं। इस बार शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद की एंट्री ने प्रतियोगिता को और रोचक बना दिया है। हालांकि यह साफ नहीं है कि उनके उम्मीदवार कितनी सीटों पर खड़े होंगे और उनका मत प्रतिशत कितना होगा, लेकिन एक बात तय है कि इस कदम ने बहस जरूर छेड़ दी है। लोग यह सोचने पर मजबूर हो गए हैं कि क्या पारंपरिक राजनीति से जुड़े दल उन सवालों को दबा रहे हैं जिन पर जनता का गहरा विश्वास है।
किशनगंज में हुए उनके संबोधन के बाद लोगों ने कहा कि यह कदम बिहार की राजनीति में नई दिशा ला सकता है। हालांकि वास्तविक नतीजे क्या होंगे, यह चुनाव के बाद ही स्पष्ट होगा। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि शंकराचार्य की मौजूदगी अब हर दल को सतर्क कर देगी। क्योंकि वे केवल धार्मिक नेता नहीं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दिशा देने वाले विचारक भी हैं।
जनता के बीच क्या असर दिखेगा
अब बड़ा सवाल यह है कि शंकराचार्य का यह फैसला जनता के बीच किस प्रकार असर डालेगा। ग्रामीण इलाकों में जहां गाय का गहरा महत्व है, वहां लोग इस मुद्दे से जुड़ाव महसूस करेंगे। शहरी क्षेत्रों में भी यह चर्चा का केंद्र बन सकता है कि आखिर अब तक किसी राजनीतिक दल ने इस पर अपनी राय क्यों नहीं रखी। अगर वे सिर्फ वोट और सत्ता की सोच में फंसे रहे तो उनके लिए यह एक चेतावनी भी हो सकती है।
राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि इस घोषणा से भले ही बहुत बड़ी राजनीतिक लहर न उठे लेकिन इतना तय है कि आगामी चुनाव में एक नया विमर्श जरूर पैदा होगा। यह विमर्श होगा ‘सांस्कृतिक पहचान और राजनीतिक जिम्मेदारी’ का। और इसी विमर्श से तय होगा कि जनता किसे चुनती है और किसे नकार देती है। शंकराचार्य का यह कदम एक साधारण ऐलान नहीं बल्कि देश की राजनीति के भविष्य की ओर इशारा करने जैसा है।
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