‘जमानत नहीं तो इलेक्शन भी नहीं...’ तिहाड़ जेल से शरजील इमाम का बयान, बिहार चुनाव से दूर हुए
तिहाड़ की ऊँची दीवारों के भीतर से एक आवाज़ आई — “जमानत नहीं तो इलेक्शन भी नहीं।” वो आवाज़ थी शरजील इमाम की। हाँ, वही शरजील जो कई महीनों से जेल में बंद हैं। अब उन्होंने ठान लिया – बिहार चुनाव नहीं लड़ेंगे। मामला अदालत में लटका है, और उम्मीदें भी मानो थम सी गई हैं।
उम्मीदों का धुंधला होना
दिल्ली हाईकोर्ट... फिर सुप्रीम कोर्ट। दोनों जगह से झटका। जमानत खारिज। उन्हें लगा था कि शायद इस बार राहत मिलेगी। लेकिन जब कोर्ट ने सुनवाई अक्टूबर के अंत तक टाल दी, तब जैसे सब कुछ रुक गया। उन्होंने जेल में अपने कुछ साथियों से कहा – “अब नहीं... अब चुनाव का कोई मतलब नहीं।”
उनकी ये बातें जेल से बाहर आईं और थोड़ी ही देर में देशभर में चर्चा शुरू हो गई। “जमानत नहीं तो चुनाव नहीं” — यह वाक्य शरजील की हताशा भी है, और शायद उनका प्रतिरोध भी।
बिहार की राजनीति में हलचल
यह खबर जैसे ही बाहर आई, बिहार की गलियों में कानाफूसी शुरू हो गई। कुछ लोग बोले – शरजील आते तो सीमांचल में वोटों का असर दिखता। दूसरों ने कहा – छोड़ो, जेल में बैठकर राजनीति नहीं होती। लेकिन सच्चाई यह है कि उनके नाम की गूंज पहले से थी। वो गूंज अब कुछ और भारी हो गई है।
राजनीतिक गलियारों में मानो कोई धीमी हलचल है। पहले वह बतौर निर्दलीय उतरने का सोच रहे थे, पर अब सब रुक गया। किसी ने कहा, “ये एक विचार की हार है।” किसी और ने लिखा, “कभी-कभी खामोशी भी बयान दे जाती है।”
तिहाड़ से निकला संदेश
शरजील इमाम का बयान जेल अधिकारियों के माध्यम से बाहर आया। कुछ शब्द, कुछ भावनाएँ। उन्होंने लिखा — “मैंने कोशिश की, लेकिन जब न्याय नहीं मिला तो चुनाव लड़ने का अधिकार भी अधूरा लगता है।” जेल के बाहर खड़े उनके समर्थक, यह पंक्ति पढ़कर कुछ देर चुप रह गए। कोई कुछ नहीं बोला।
यह कोई साधारण बयान नहीं था। यह एक ऐसे व्यक्ति की थकान थी जो वक्त और व्यवस्था के बीच फंसा हुआ है।
सोशल मीडिया पर बहस
कुछ ही घंटों में शरजील का नाम ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा। हैशटैग #JusticeForSharjeel। कुछ लोग उनके समर्थन में बोले – “वो जेल में हैं, लेकिन सोचने पर मजबूर कर रहे हैं।” कुछ ने कहा – “कानून सबके लिए समान है।” दोनों पक्षों की दलीलें चल रहीं थीं, सरकारी और सिविल सोसाइटी दोनों के बीच।
फेसबुक पर उनके पुराने भाषणों के क्लिप फिर से घूम रहे हैं। लोग लिख रहे – “वो लड़ नहीं पाए, लेकिन उनकी आवाज़ अब भी गूंज रही है।”
परिवार की चुपी और बेबसी
शरजील की माँ। उनकी आँखों में कहीं उम्मीद बाकी थी। मीडिया वालों ने पूछा, “अब क्या सोचा है?” उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा, “बस बेटा बाहर आ जाए... फिर जो भी हो।” उनका छोटा भाई कहता है, “उन्होंने हमेशा कानून में भरोसा किया, शायद यही भरोसा अब थोड़ी तकलीफ़ दे रहा है।”
बिहार के किशनगंज और अररिया के इलाकों में उनके पोस्टर धीरे-धीरे हटने लगे हैं। लेकिन नाम नहीं मिटा। लोग अब भी उन पर बात करते हैं – जैसे वो आज़ाद हों।
राजनीतिक विश्लेषक क्या सोचते हैं
एक स्थानीय विश्लेषक ने कहा, “शरजील का राजनीति में उतरना प्रतीकात्मक होता, पर उसका असर गहरा होता।” वो सही कह रहे हैं। राजनीति सिर्फ वोट की बात नहीं, सोच की बात भी होती है। उनकी सोच पर ताला लगाया गया है, अभी फिलहाल।
दूसरे ने कहा – “यह फैसला भावनात्मक है, लेकिन समझदारी भरा भी।” क्योंकि जेल से चुनाव... आसान बात नहीं। लेकिन यह बयान भाजपा, आरजेडी और बाकी दलों के लिए भी एक संकेत देता है कि जनता अब मुद्दे से ज्यादा इंसान को देखने लगी है।
अभी सफर बाकी है
शरजील का केस अब अक्टूबर के आखिर में फिर से खुलेगा। शायद तब नई सुनवाई हो। शायद तब कोई राह निकले। अभी बस इंतजार है।
बिहार के सियासी माहौल में यह कहानी एक अलग मोड़ ले रही है। वे चुनाव भले न लड़ें, लेकिन उनका नाम अब भी बहस का हिस्सा है। गली-मुहल्लों में लोग कहते हैं – “वो बोले कम, असर ज्यादा छोड़ गए।”
अंत में – एक अधूरी कहानी
“जमानत नहीं तो इलेक्शन भी नहीं।” सिर्फ छह शब्द। पर उन शब्दों में पूरी कहानी बसी है। एक कहानी उस व्यक्ति की, जो अदालत के दरवाजे से उम्मीद लगाए बैठा है। और बिहार की सड़कों पर वही कहानी अब जिंदा है, जैसे हवा में कोई धीमी आवाज़ गूँज रही हो — “शायद, एक दिन सब बदल जाएगा।”
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Gaurav Jha
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