Tejashwi Yadav को सीएम कैंडिडेट बनाने से महागठबंधन को फायदा कम, नुकसान ज्यादा, बिहार राजनीति का बड़ा दांव

Tejashwi Yadav को सीएम कैंडिडेट घोषित करने के बाद बिहार की राजनीति में नई हलचल शुरू हो गई है। इस फैसले से महागठबंधन ने बड़ा दांव खेला है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या Tejashwi Yadav को सीएम कैंडिडेट बनाकर वाकई फायदा होगा या अंदरूनी मतभेद बढ़ेंगे? बिहार की सियासत में यह फैसला निर्णायक साबित हो सकता है।

Tejashwi Yadav को सीएम कैंडिडेट बनाने से महागठबंधन को फायदा कम, नुकसान ज्यादा, बिहार राजनीति का बड़ा दांव

तेजस्वी यादव को सीएम बनाने का फैसला: क्या वाकई ये महागठबंधन के लिए फायदेमंद है?

 

बिहार की राजनीति में हलचल मची हुई है। तेजस्वी यादव को एक बार फिर मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया है। साथ ही मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम पद का चेहरा बनाया गया। सुनकर राजनीतिक गलियारों में हल्की मुस्कान भी है और कुछ बेचैनी भी। लोग कह रहे हैं – ये मास्टरस्ट्रोक है। पर क्या सच में है ऐसा?

 

महागठबंधन की नई चाल

महागठबंधन ने ये फैसला सोच समझकर लिया। तेजस्वी यादव पर दांव लगाना असल में जोश और आत्मविश्वास दिखाने जैसा है। यादव समाज को साधने के साथ-साथ निषाद वर्ग को जोड़ने की भी कोशिश। लेकिन बिहार की राजनीति, भाई, सीधी नहीं होती। यहां एक चाल से कई सवाल उठते हैं। और यही चीज़ इस फैसले को दिलचस्प बनाती है।

 

जातीय गणित ही सबकुछ?

कहा जा रहा है कि तेजस्वी यादव + मुकेश सहनी का कॉम्बिनेशन बहुत मजबूत है। यादव, मुसलमान और निषाद मतदाता अगर एक जगह आए, तो महागठबंधन को बड़ा फायदा मिल सकता है। लेकिन समीकरण पर ही चुनाव नहीं जीते जाते। भरोसे और संगठन की भी ज़रूरत होती है। और यही जगह है जहां कहानी थोड़ी मुश्किल होती दिखती है।

 

विपक्ष के सामने चुनौती

अब बात करते हैं विपक्ष की। एनडीए पहले से संगठित है। उनकी कमान साफ है। अभी तेजस्वी यादव को सामने लाकर विपक्ष ने लय बनाने की कोशिश की है। लेकिन ये मैदान काटों भरा है। कहीं ऐसा न हो कि नेतृत्व घोषित करने की जल्दबाजी से भीतर ही भीतर बगावत पनप जाए। राजनीति में चेहरा बड़ा होता है, पर टीम उससे भी बड़ी होती है।

 

भीतरी खिचाव और गठबंधन की कसौटी

साफ बोलें तो, महागठबंधन अंदर से एक जैसा नहीं दिख रहा। हर दल की अपनी सोच है, अपनी रफ्तार। तेजस्वी यादव के पास ऊर्जा है, पर अनुभव सीमित। साथी दलों को बराबरी का भाव नहीं मिला, तो मुसीबत भी आ सकती है। याद रखिए, बिहार की राजनीति रिश्तों पर चलती है, सिर्फ भाषणों पर नहीं।

 

युवा मतदाताओं की उम्मीद

यह तय है कि युवाओं में तेजस्वी यादव के प्रति आकर्षण है। वो बेबाक बोलते हैं, बेरोजगारी और शिक्षा पर बात करते हैं। लेकिन क्या यह असर चुनाव में वोट में बदल पाएगा? इसका जवाब सरल नहीं। क्योंकि जोश के साथ भरोसा जरूरी है, जो अभी भी अधूरा दिखता है। लेकिन इतना तय है – उन्होंने चर्चा बना दी है।

 

मुकेश सहनी का कार्ड – कितना असरदार?

मुकेश सहनी का नाम जोड़ना स्मार्ट मूव है। निषाद वोट बैंक को छूने की कोशिश। वे खुद को ‘सोन ऑफ मल्लाह’ कहते हैं और पिछड़ी जातियों में पकड़ रखते हैं। पर सवाल ये है – क्या यह समर्थन टिकेगा? तेजस्वी यादव के ब्रांड के साथ क्या वे आराम से चल पाएंगे, या बीच रास्ते असहज हो जाएंगे? राजनीति में भरोसा सबसे कठिन चीज़ होती है।

 

संगठन की मजबूती की असल परीक्षा

देखिए, चुनाव सिर्फ चेहरा नहीं, जमीनी नेटवर्क से जीते जाते हैं। महागठबंधन की सबसे बड़ी कमजोरी हमेशा संगठन रही है। तेजस्वी यादव मेहनत तो कर रहे हैं, लेकिन क्या संदेश नीचे तक पहुंच रहा है? गांव-गांव में कार्यकर्ता अब भी कन्फ्यूज हैं कि गठबंधन की दिशा क्या है। और यही भ्रम नुकसान का कारण भी बन सकता है।

 

लाभ ज्यादा या नुक़सान गहरा?

दिखने में यह फैसला साहसिक है। लेकिन राजनीति में बहुत साहस भी कभी-कभी भारी पड़ जाता है। तेजस्वी यादव के नाम पर एक वर्ग उत्साहित है, पर दूसरा थोड़ा हिचकिचा भी रहा। नेता खुश हैं, लेकिन पुराने दिग्गजों के चेहरे पर एक सन्नाटा है। शायद वे सोच रहे हैं – अब आगे हमारी जगह कहां है?

 

जनता का मूड क्या कहता है?

गांव की चाय दुकानों पर, चौपालों में, लोग चर्चा कर रहे हैं। कोई कहता है – “तेजस्वी नेता अच्छा है, पर वक्त देख के चलना चाहिए।” कोई बोलता है – “अबकी बार मौका मिलना चाहिए।” जाहिर है कि उत्सुकता है, पर ठोस भरोसा नहीं। तेजस्वी यादव की चुनौती यही है – भावनाओं को नतीजों में बदलना।

 

भविष्य की दिशा और निष्कर्ष

राजनीति में हर फैसला दांव होता है। और यह दांव बड़ा है। अगर बिहार की जनता ने इसे स्वीकार किया, तो तेजस्वी यादव सशक्त छवि के साथ उभरेंगे। अगर नहीं, तो यह प्रयोग महागठबंधन के लिए घाटे का सौदा बन सकता है। अभी सब कुछ संभव है। पर इतना तय है कि यह फैसला आने वाले महीनों तक सुर्खियों में रहेगा। राजनीति सांस लेती रहेगी, और उसके साथ सवाल भी।