Crime Katha: जब बगहा में इंसाफ मांगते लोगों पर बरसीं गोलियाँ
नवंबर 1997। बगहा का एक छोटा सा कस्बा। सर्द सुबह, और दूर कहीं शोर सुनाई दे रहा था — “इंसाफ चाहिए।” किसी ने सोचा भी नहीं था कि उस सुबह की आवाज़ें कुछ घंटों में चीखों में बदल जाएँगी। उस दिन बगहा में इंसाफ मांगने वालों पर गोलियाँ चली थीं। और बिहार जैसे थम-सा गया था।
शांतिपूर्ण प्रदर्शन जो रात के दर्द में बदल गया
सब कुछ सामान्य था। एक दलित युवक की पुलिस हिरासत में मौत के बाद ग्रामीण बस सवाल पूछना चाहते थे। बस जवाब चाहिए था। वे थाने के बाहर इकट्ठा हुए, नारे लगाए — लेकिन वो नारे विद्रोह नहीं थे। फिर अचानक, सब कुछ बदल गया। गोली चली। एक नहीं, कई चलीं। अफरा-तफरी मच गई। लोग भागे, कहीं गिरे, कहीं अपने अपने बच्चों को ढूँढ़ने लगे।
जब गोलियाँ थमीं, सड़क पर 11 शव पड़े थे। सब दलित, सब गरीब। सब इंसाफ मांगने वाले। यह कोई दंगा नहीं, यह पुलिस की बर्बर कार्रवाई थी। जो बिहार की आत्मा को झकझोर देने वाली थी।
क्यों चला गोली का ट्रिगर, कौन था जिम्मेदार?
CBI और NHRC की जांच में जो सामने आया, उसने सरकार और पुलिस दोनों के दावों को चकनाचूर कर दिया। रिपोर्ट में साफ कहा गया — भीड़ निहत्थी थी। कोई खतरा नहीं था। फिर भी पुलिस ने भीड़ पर निशाना साधकर गोली चलाई। ये आदेश किसने दिया? जवाब किसी के पास नहीं। कुछ अफसरों ने बयान दिए, पर किसी ने जिम्मेदारी नहीं ली।
तब के स्थानीय थाने के अफसरों ने कहा था कि उन्होंने बस “कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए” गोली चलाई। लेकिन जिनकी जान गई, वो कानून नहीं थे — वो इंसान थे। और यही इस कहानी की सबसे बड़ी त्रासदी थी।
बगहा की जमीन पर फैला खून, और गोलियों से टूटा भरोसा
मौतों की खबर जैसे ही फैली, पूरा इलाका सिहर उठा। लोग कहने लगे — “अब पुलिस से डर और बढ़ गया।” बगहा के खेतों और गलियों में बच्चे अब भी उसी कहानी को सुनते हैं — कैसे न्याय मांगना गुनाह बन गया था।
Crime Katha की इस कहानी में वो सब है जो प्रशासनक ठंडे रिपोर्ट में नहीं लिखा जाता — माँ की चिल्लाहट, पिता की टूटी कमर, और उन बच्चों की आँखें जो उस दिन के बाद कभी थाने की ओर नहीं देख पाए।
NHRC की रिपोर्ट और सरकारी उदासीनता
NHRC ने बाद में कहा — “ये सीधा मानवीय अधिकारों का उल्लंघन है।” आयोग ने बिहार सरकार से मुआवजा की सिफारिश की, लेकिन न्याय अब भी अधूरा है। कुछ अफसर निलंबित हुए, कुछ ट्रांसफर किए गए। बस इतना ही।
कहते हैं कि एक-एक केस फाइल धूल में दब गई। पीड़ितों के नाम सरकारी रिकॉर्ड में गुम हो गए। और आज, बगहा का वह इलाका बस एक कहानी रह गया है — सरकारी फाइलों में दर्ज लेकिन लोगों के दिलों में जिंदा।
दलित समाज में डर और गुस्सा दोनों जिंदा रहे
उस हादसे के बाद बिहार के कई जिलों में विरोध हुआ। दलित संगठनों ने कहा कि यह राज्य की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे अपराधों को रोके। लेकिन वादे हर चुनाव के साथ बदले। नेताओं ने दौरे किए, भाषण हुए, पर गाँवों की आँखों का डर नहीं गया।
लोग आज भी कहते हैं — “अगर इंसाफ मांगना गुनाह है, तो हम से बड़ा गुनहगार कौन।” ये वाक्य बगहा की गलियों में अब भी सुने जा सकते हैं। उस गांव की मिट्टी ने जो देखा, वो कोई भूला नहीं।
साल दर साल, याद और सवाल दोनों जिन्दा
हर साल नवंबर की हवा बगहा में कुछ भारी लगती है। गाँव के लोग उस दिन पूजा नहीं, शांति सभा करते हैं। 11 नाम पुकारे जाते हैं। मोमबत्तियाँ जलती हैं। और रात देर तक धीरे-धीरे गूंजता है वही सवाल — “क्या अब इंसाफ आएगा?”
25 साल गुजर गए, लेकिन जवाब अब भी हवा में है। Crime Katha की यह कहानी बस एक घटना नहीं, चेतावनी है कि इंसाफ अगर धीमा पड़ जाए तो समाज कांपता है, और सिस्टम अपनी सूरत खो देता है।
बगहा अब बदल चुका है, पर दर्द अब भी वहीं
आज बगहा में नए पुल बन गए हैं, बाजार हैं, मोबाइल टॉवर है, पर उस दिन की तस्वीर अब भी धुंध में तैरती है। बूढ़े लोग अब भी बताते हैं कि उस दिन की गोली की आवाज कानों से नहीं, दिल से निकलती थी।
बगहा की जमीन आज भी गवाही देती है कि कभी यहाँ इंसाफ मांगने वालों पर गोलियाँ चली थीं। वह घाव वक़्त के साथ सूखा नहीं। बस ढक गया है। और यही Crime Katha की असली कहानी है — एक गाँव जो अभी भी अपने घावों से बात करता है।












