जब भी 1857 की पहली स्वतंत्रता संग्राम की बात होती है, तो हमारे मन में दिल्ली, मेरठ, झांसी और कानपुर जैसे बड़े नाम आते हैं। लेकिन इतिहास की कुछ कहानियाँ ऐसी भी होती हैं जो किताबों में जगह नहीं पातीं, फिर भी उनका महत्व किसी भी प्रमुख घटना से कम नहीं होता। ऐसी ही एक प्रेरणादायक और रोंगटे खड़े कर देने वाली गाथा है — मथुरा जनपद के छोटे से गांव ‘अडींग’ की।
बलिदान की भूमि: अडींग का ऐतिहासिक टीला
अडींग गांव में स्थित एक शांत और साधारण सा दिखने वाला टीला, दरअसल भारत के स्वतंत्रता संग्राम के एक बेहद वीरतापूर्ण अध्याय का मूक साक्षी है। इसी स्थान पर 1857 की क्रांति के दौरान 70 देशभक्तों को एक साथ फांसी पर लटका दिया गया था, वो भी बिना किसी मुकदमे, बिना किसी सुनवाई के।
गांव के बुजुर्ग और जानकार बताते हैं कि जब 1857 की क्रांति की ज्वाला देशभर में फैली, तब अडींग और उसके आसपास के ग्रामीण भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ खड़े हो गए थे। वे स्वतंत्रता सेनानियों को न सिर्फ आश्रय देते थे, बल्कि हर संभव सहायता भी करते थे। जब यह बात अंग्रेजों को पता चली, तो उन्होंने अडींग गांव पर हमला बोल दिया और वहां के 70 लोगों को पकड़कर बिना किसी न्याय प्रक्रिया के मौत की सजा दे दी।
गुमनाम नायक, अमर बलिदान
इतिहास की विडंबना देखिए — जिन लोगों ने देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दी, उनका नाम तक इतिहास की किताबों में दर्ज नहीं है। लेकिन अडींग का यह टीला आज भी उनकी गुमनाम शहादत की खुशबू से महकता है। यह स्थान आज भी उनके बलिदान को याद दिलाता है, जो अपने वतन के लिए निडर होकर मौत को गले लगा गए।
राष्ट्रीय स्मारक की माँग
अडींग के ग्रामीण वर्षों से इस स्थान को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा दिलाने की मांग कर रहे हैं। उनकी मांग बिल्कुल जायज़ है — ऐसा पवित्र स्थल, जहाँ मिट्टी भी शहीदों के रक्त से सिंचित हो, एक संग्रहालय या स्मारक का हकदार है। यहां तक कि यह स्थान आने वाली पीढ़ियों को देशभक्ति और बलिदान की भावना से जोड़ने वाला प्रेरणास्रोत बन सकता है।
अब ज़िम्मेदारी है हमारी
स्थानीय प्रशासन, जनप्रतिनिधियों और देशभक्त नागरिकों की यह जिम्मेदारी बनती है कि अडींग गांव के इस इतिहास को संरक्षित किया जाए, ताकि यह महज एक टीला न रहे, बल्कि एक जीवंत स्मृति-स्थल बनकर उभरे। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इस अनछुए अध्याय को उजागर करना, उन 70 शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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