बेंगलुरु की हल्की धूप के बीच कर्नाटक हाईकोर्ट के भीतर माहौल गर्म रहा। न्यायमूर्ति कृष्णा-दीक्षित की पीठ ने केंद्र सरकार को याद दिलाया कि वरिष्ठ नागरिकों के लिए तय 10,000 रुपये की भरण-पोषण सीमा मौजूदा महँगाई में बेहद कम है। अदालत ने कहा कि यह राशि 2007 के भरण-पोषण अधिनियम में निर्धारित हुई थी, लेकिन अब जीवनयापन की लागत काफी बढ़ चुकी है। इसी को देखते हुए अदालत ने केंद्र को नोटिस जारी कर पूछा कि यह सीमा कब और कितनी बढ़ाई जाएगी।
भरण-पोषण अधिनियम की मौजूदा चुनौतियाँ
‘मेन्टेनेन्स ऐंड वेलफ़ेयर ऑफ पेरेंट्स ऐंड सीनियर सिटिज़न्स ऐक्ट, 2007’ पारित होते समय खाने-पीने, किराया, दवाइयों और रोज़मर्रा की ज़रूरतों का औसत खर्च अलग था। तब 10,000 रुपये महीने को पर्याप्त समझा गया। मगर पिछले पंद्रह साल में घरेलू गैस से लेकर हृदय की दवाइयों तक, हर चीज़ की कीमत कई गुना बढ़ चुकी है। इसी वजह से हजारों बुज़ुर्ग परिवार न्यायालयों के सामने गुहार लगा रहे हैं कि या तो भरण-पोषण का नियम सुधारा जाए या इसे राज्यों के सामाजिक सुरक्षा बजट से जोड़ा जाए।
महँगाई का सीधा असर : दवा, किराए और बिजली का बोझ
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार, खुदरा महँगाई दर लगातार 6 प्रतिशत के आसपास घूम रही है। बुज़ुर्गों पर इसका सबसे ज़्यादा असर दवाइयों और चिकित्सा पर पड़ता है, क्योंकि यह खर्च टाला नहीं जा सकता। अकेले ब्लड-प्रेशर और मधुमेह की नियमित गोलियों पर ही एक साधारण परिवार को महीने में दो-तीन हज़ार रुपये निकल जाते हैं। शहरों में किराया अलग से चुकाना पड़ता है और बिजली बिल पर बढ़ा हुआ ईंधन अधिभार भी जुड़ गया है। ऐसे में 10,000 रुपये की सीमा असल ज़रूरतों का शायद आधा भी नहीं भर पाती।
केंद्र सरकार से अदालत की अपेक्षाएँ और संभावित रोडमैप
पीठ ने कहा कि महज़ न्यायिक आदेश से समस्या का समाधान नहीं होगा; नीतिगत बदलाव ज़रूरी है। अदालत ने वित्त मंत्रालय और सामाजिक न्याय मंत्रालय दोनों से व्यापक अध्ययन दाख़िल करने को कहा है – इसमें महँगाई सूचकांक, औसत चिकित्सा खर्च और न्यूनतम जीवनयापन लागत शामिल होगी। शुरुआती संकेत यही हैं कि सीमा सीधे दोगुनी या उससे भी ज़्यादा तय की जा सकती है, ताकि अगली दस बरसों तक इसे बार-बार बदलने की ज़रूरत न पड़े।
कर्नाटक का सामाजिक सुरक्षा ढाँचा : राज्य पर क्या असर पड़ेगा
कर्नाटक पहले ही ‘वयोश्रेय योजना’ के तहत 60 प्लस नागरिकों को आंशिक आर्थिक सहायता देता है। अगर केंद्र 10,000 की सीमा बढ़ाता है, तो राज्य के मौजूदा बजट प्रावधानों पर भी पुनर्विचार करना होगा। सामाजिक कल्याण विभाग के अधिकारियों का अंदाज़ा है कि नई सीमा लागू होते ही सालाना 800–900 करोड़ रुपये अतिरिक्त लगेंगे। इसका इंतज़ाम या तो वस्तु एवं सेवा कर के शेयर से होगा या फिर सामाजिक कल्याण उपकर बढ़ाकर किया जाएगा।
हितधारकों की राय : विशेषज्ञ, एनजीओ और खुद बुज़ुर्ग क्या कहते हैं
बुज़ुर्ग हित मंच के संयोजक एन. गोपालकृष्णन का कहना है कि अदालत का रुख़ स्वागतयोग्य है, पर असली परीक्षा क्रियान्वयन की होगी। हेल्थ‐ई इंडिया नामक एनजीओ की डॉक्टर अनीता राज ने याद दिलाया कि सरकारी अस्पतालों में दवाइयाँ सीमित हैं; निजी दवाओं पर जीएसटी घटाना भी राहत दे सकता है। शहर के बाहर रहने वाले अरविंद अप्पा (72) का कहना है कि पैसे से ज़्यादा ज़रूरी सम्मानजनक प्रक्रिया है, जिससे बुज़ुर्गों को बार-बार कागज़ी कार्यवाही न झेलनी पड़े।
सामान्य नागरिकों के लिए मतलब : परिवार, समाज और अर्थव्यवस्था
अदालत का निर्देश सिर्फ आँकड़ों का फेर-बदल नहीं है; यह परिवारों की बनावट पर भी असर डालता है। अगर भरण-पोषण सीमा बढ़ती है तो बुज़ुर्गों की आर्थिक निर्भरता कम होगी और युवा कमाई का बड़ा हिस्सा बच्चों की पढ़ाई या अपने आवास क़र्ज़ चुकाने में लगा पाएँगे। साथ ही, अतिरिक्त ख़र्च बाज़ार में लौटकर माँग को बढ़ाएगा, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी। सामाजिक दृष्टि से भी यह क़दम ‘पीढ़ियों के बीच सम्मान’ की धारणा को मजबूत करता है, क्योंकि तब सहायता कानूनी अधिकार बन जाती है, एहसान नहीं।
संसद, नीति और न्याय
कर्नाटक हाईकोर्ट ने सुनवाई की अगली तारीख़ चार सप्ताह बाद तय की है। यदि केंद्र तब तक ठोस प्रस्ताव नहीं लाता, तो अदालत अंतरिम दिशा-निर्देश भी जारी कर सकती है। कानूनी जानकार मानते हैं कि मामला अंततः संसद की स्थायी समिति तक जाएगा, जहाँ विधेयक संशोधन का मसौदा तैयार होगा। यह प्रक्रिया लंबी ज़रूर है, पर शुरुआत हो चुकी है।