पूरा उत्तर-पूर्व इस बात का साक्षी रहा है कि मणिपुर पिछले ढाई साल से कैसी कठिनाईयों से गुजर रहा है। हिंसा की आग में झुलसते इस राज्य के कई शहर और गांव अब भी बीते हालात की कड़वी गवाही दे रहे हैं। महिलाओं का अपमान, जलते हुए घर और विस्थापित परिवार आज भी वहां की सच्चाई का हिस्सा हैं। इन सबके बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 865 दिन बाद मणिपुर का दौरा किया। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस दौरे से आम लोगों की टूटी हुई उम्मीदें फिर से जुड़ पाएंगी?
क्यों भड़की थी हिंसा
मणिपुर में हिंसा की शुरुआत जातीय टकराव से हुई। मैतेई और कुकी समुदाय के बीच जमीन, आरक्षण और पहचान की लड़ाई धीरे-धीरे आग बन गई। लोग अपने ही घरों से बेघर हुए और गांव लाशों और मलबों में तब्दील हो गए। कुछ परिवारों ने अपने प्रियजनों को खोया, तो कुछ के सिर से छत छिन गई। इस बीच महिलाओं के साथ हुई दरिंदगी ने पूरे देश को झकझोर दिया।
865 दिन इंतजार क्यों?
जब मणिपुर धधक रहा था, कई बार सवाल उठे कि दिल्ली से कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया गया। लोग लगातार पूछते रहे कि प्रधानमंत्री वहां क्यों नहीं जा रहे। 865 दिनों तक इंतजार और अनगिनत अपीलों के बाद आखिरकार पीएम मोदी मणिपुर पहुंचे। इस लंबे इंतजार ने लोगों के मन में गहरी नाराजगी और अविश्वास पैदा कर दिया। अब जब प्रधानमंत्री वहां गए हैं, तो उम्मीद भी है और कटु सवाल भी।
लोगों की आंखों में डर और आंसू
मणिपुर के राहत कैंपों में रह रहे परिवारों की हालत किसी खुले घाव जैसी है। कई लोग आज भी अपने बिछड़े परिजनों के लौटने का इंतजार कर रहे हैं। जिनके घर जला दिए गए, वे अब अस्थायी टिन शेड्स में जिंदगी गुजार रहे हैं। बच्चों की पढ़ाई छूट गई, खेत बंजर हो गए और व्यापार ठप हो गया। सबसे बड़ी चोट है भरोसे की कमी—लोग खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं। महिलाओं का कहना है कि उनके साथ जो हुआ, उसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती।
राजनीतिक नजर और असली मुद्दे
पीएम मोदी ने अपने दौरे के दौरान पुनर्वास और राहत के वादे किए। उन्होंने हिंसा पीड़ितों से मुलाकात की और प्रशासन को जल्द से जल्द हालात काबू में लाने को कहा। लेकिन स्थानीय लोग मानते हैं कि असली मसला जातीय सौहार्द को वापस लाना है। चुनाव नजदीक हों या राजनीतिक बयानबाजी, लोगों को अब केवल एक ही चीज चाहिए—सुरक्षा और सम्मान।
राहत कैंपों का दर्द
राहत शिविरों में रहना आसान नहीं है। हजारों लोग महीनों से अस्थाई कैंपों में गुजारा कर रहे हैं। यहां राहत सामग्री तो पहुंचती है, लेकिन जीवन एकरस और कठोर बना हुआ है। बुजुर्ग दवाइयों के लिए तरसते हैं, बच्चे मिट्टी में खेलते हैं, और महिलाएं किसी तरह चूल्हा जलाने की जद्दोजहद करती हैं। राहत से ज्यादा यहां लोग अपने गांव और अपनी पुरानी जिंदगी को याद करते हैं।
865 दिन बाद आई कोई नई उम्मीद?
प्रधानमंत्री के दौरे ने मणिपुर के लोगों के दिलों में कुछ उम्मीदें जरूर जगाई हैं। जिन इलाकों को जलकर खाक हुए एक साल से ज्यादा हो गया, वहां पहली बार इतनी बड़ी राजनीतिक हलचल देखने को मिली। लेकिन लोगों का कहना है कि महज भाषण या वादों से बदलाव नहीं आएगा। उन्हें अपने गांवों में सुरक्षित लौटने और बच्चों की पढ़ाई शुरू होने की उम्मीद है।
बदलती तस्वीरें और सच्चाई
अगर मणिपुर को आज देखें, तो वहां ध्वस्त घरों के साथ-साथ कुछ जगह फिर से खड़े होते झोपड़े और अस्थाई आशियाने भी दिखते हैं। इन टूटे-फूटे घरों के बीच जीने की कोशिश करते लोग मानो कह रहे हों—हम अब भी हार मानने के लिए तैयार नहीं। यह जज्बा दिखाता है कि दर्द के बीच भी उम्मीद बनी रहती है।
आगे का रास्ता
मणिपुर के लोगों के लिए सबसे बड़ा सवाल है कि आने वाले दिनों में क्या होगा। क्या अलग-अलग समुदायों के बीच दरारें पाटी जा सकेंगी? क्या सरकार भरोसा दिला पाएगी कि ऐसी हिंसा फिर नहीं होगी? और सबसे अहम—क्या महिलाएं फिर से अपने गांवों में खुद को सुरक्षित महसूस कर पाएंगी? इन सवालों के जवाब अभी बाकी हैं। 865 दिन का इंतजार खत्म हुआ जरूर है, लेकिन असल बदलाव का सफर अब शुरू होता है।