मथुरा की कला जब धर्म से परे ईश्वर की सेवा होती है

जन्माष्टमी 2025 में मथुरा के मुस्लिम कारीगरों द्वारा भगवान ठाकुरजी की पोशाकें तैयार करना, कला, श्रद्धा और सांप्रदायिक एकता का अद्भुत संगम दर्शाता है।

मथुरा की कला जब धर्म से परे ईश्वर की सेवा होती है

जन्माष्टमी पर मुस्लिम कारीगरों की कला ठाकुरजी की पोशाकों के पीछे की कहानी

मथुरा में जन्माष्टमी का त्यौहार न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि सांप्रदायिक सौहार्द्र और कला का जादू भी बिखेरता है। मुस्लिम कारीगर हर साल भगवान श्रीकृष्ण (लड्डू गोपाल) की पोशाकें तैयार करते हैं, जो रंग-बिरंगी, जरी और मोतियों से सजी होती हैं।

कला और मेहनत का संगम

पोशाकों में इस्तेमाल होने वाली सामग्रियों में रेशमी धागे, जरी, सेक्विन, मोती और स्टोन वर्क शामिल हैं। इनकी नाजुक कढ़ाई और खूबसूरती इतनी है कि लोग विदेशों तक से ऑर्डर करते हैं।

पीढ़ियों की सेवा

करीब पचास वर्षों से सलीम मियाँ और उनके परिवार ने ठाकुरजी की पोशाकों का निर्माण किया है। उनके अनुसार यह काम सिर्फ व्यापार नहीं, बल्कि सेवा है।

"हम इसे कारोबार नहीं, सेवा मानते हैं। हमारे अब्बा भी यही काम करते थे और अब हमारे बच्चे भी। हम श्रीकृष्ण को अपना भी मानते हैं।" – सलीम मियाँ

आर्थिक महत्व

मथुरा–वृंदावन में सिर्फ ठाकुरजी की पोशाकों का वार्षिक कारोबार ₹200–300 करोड़ रुपये का है। पोशाक की कीमत ₹50 से ₹12,000 तक होती है और कारीगरों की औसत मासिक आय ₹10,000–₹15,000 होती है।

एकता और समरसता का प्रतीक

यह परंपरा यह दिखाती है कि धार्मिक भेदभाव के बावजूद, ईश्वर के प्रति प्रेम और कला सभी धर्मों के लिए समान हैं। जब दुनिया के कई हिस्सों में धर्म के नाम पर दूरी बढ़ रही है, मथुरा की यह तस्वीर हमें यह सिखाती है कि सेवा, श्रद्धा और कला के जरिए समाज में एकता और भाईचारा कायम रखा जा सकता है।

वैश्विक पहचान

मथुरा और वृंदावन में बनी ठाकुरजी की पोशाकें न केवल देशभर में लोकप्रिय हैं, बल्कि अमेरिका, जापान, इंग्लैंड, नेपाल और मॉरीशस जैसे देशों में भी भेजी जाती हैं।

जन्माष्टमी पर मथुरा में कौन पोशाक बनाता है?
मथुरा में मुस्लिम कारीगर भगवान श्रीकृष्ण (लड्डू गोपाल) की पोशाकें बनाते हैं।
ठाकुरजी की पोशाक बनाने में कौन-कौन सी सामग्री इस्तेमाल होती है?
पोशाकों में रेशमी धागे, जरी, मोती, स्टोन वर्क और सेक्विन का उपयोग किया जाता है।
यह काम कितने वर्षों से किया जा रहा है?
करीब पचास वर्षों से यह कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी चलता आ रहा है।
ठाकुरजी की पोशाकों का आर्थिक महत्व क्या है?
मथुरा–वृंदावन में केवल ठाकुरजी की पोशाकों का वार्षिक कारोबार लगभग ₹200–300 करोड़ रुपये का है।
क्या ये पोशाकें सिर्फ भारत में ही इस्तेमाल होती हैं?
नहीं, ये पोशाकें अमेरिका, जापान, इंग्लैंड, नेपाल और मॉरीशस जैसे देशों में भी भेजी जाती हैं।
यह परंपरा समाज में क्या संदेश देती है?
यह दर्शाती है कि धार्मिक भेदभाव के बावजूद कला, सेवा और श्रद्धा के जरिए समाज में एकता और भाईचारा कायम रखा जा सकता है।
मुस्लिम कारीगर इसे व्यवसाय मानते हैं या सेवा?
कारीगर इसे केवल व्यवसाय नहीं बल्कि ईश्वर की सेवा मानते हैं।