यूरोप के इस चमकदार देश में जनगणना के आँकड़े धर्म के आधार पर खुलकर सामने नहीं आते, मगर शोध-संस्थाओं और सरकारी सर्वे ने कुछ चित्र साफ किए हैं। फ्रांस में मुसलमानों की जनसंख्या लगभग 50 लाख के आसपास बताई जाती है, जो कुल आबादी का करीब 8% हिस्सा है। दूसरी ओर, हिंदू आबादी लगभग 1 लाख 50 हज़ार मानी जाती है। यानी कुल आबादी का सिर्फ 0.2%। ये आँकड़े बताते हैं कि अल्पसंख्यक तबकों का दायरा बड़ा है, लेकिन आवाज़ों को अक्सर वही ताकतवर नज़रें तय करती हैं जो सत्ता गलियारों में बैठी हैं।
मस्जिदों पर क्यों बढ़ रहे हमले? इतिहास से आज तक की परतें
फ्रांस की धर्मनिरपेक्षता (Laïcité) को गर्व से उदाहरण के रूप में पेश किया जाता रहा है। फिर भी, हिजाब पर पाबंदी जैसा क़दम उठाते समय सरकार ने मुसलमानों के सांस्कृतिक अधिकारों को सीमित किया। 2015 के शार्ली हेब्दो हमले के बाद से मस्जिदों को निशाना बनाए जाने की घटनाएँ तेजी से बढ़ीं। दिसंबर 2023 तक जून के पहले हफ्ते में ही पुलिस रिकॉर्ड में पचास से ज़्यादा शिकायतें दर्ज हो चुकी थीं।
सुरक्षा विशेषज्ञ कहते हैं कि हर बार आतंक से जुड़ी कोई घटना होने पर मस्जिद वक्त की चपेट में आ जाती है। कुछ राजनीतिक पार्टियाँ इसे आंतरिक खतरे के तौर पर प्रचारित करती हैं, जिससे डर का माहौल गहराता है। इसका नतीजा—अमेज़न जैसे ई-कॉमर्स मंचों पर इस्लामोफोबिक किताबें अचानक ट्रेंड करती हैं और सोशल मीडिया पर अफवाहें एक चिंगारी की तरह फैलती हैं।
अल्पसंख्यकों की हत्या और ‘नया कटघरा’
पिछले एक साल की रिपोर्ट में कम से कम 12 घटनाएँ ऐसी दर्ज हुईं जिनमें पीड़ित अल्पसंख्यक था और आरोपियों ने नस्लीय नारा लगाया। इनमें से चार मामलों में भारतीय मूल के लोग भी थे। पेरिस के उपनगरों में रहने वाले प्रवासी परिवार बताते हैं कि दुकान से लौटते समय भी डर लगता है—कहीं कोई ‘तुम्हारा देश पाकिस्तान है’ चिल्लाते हुए हमला न कर दे।
क्या फ्रांस सच में ‘तेजी से नस्लवाद’ की ओर जा रहा है?
अंतरराष्ट्रीय थिंक टैंक ‘प्यू रिसर्च’ के एक हालिया सर्वे में 65% फ्रांसीसी युवाओं ने माना कि इस्लाम और फ्रांसीसी पहचान में टकराव है। विशेषज्ञ इसे भावनात्मक पॉलिटिक्स का नतीजा बताते हैं, जहां आर्थिक चुनौतियों का ठीकरा बाहरी समुदायों पर फोड़ा जाता है। 2018 से 2024 के बीच बेरोज़गारी दर 7% के आसपास अटकी रही; इसी दौर में दंगों और घृणा-अपराध की रफ्तार भी बढ़ी।
हिंदू समुदाय अदृश्य मगर जीवंत
हिंदू परिवार ज़्यादातर पेरिस, लियॉन, स्ट्रासबर्ग और मार्सेय में बसे हैं। इनमें तमिल, गुजराती, महाराष्ट्रीयन और नेपाली मूल के लोग शामिल हैं। गणेश चतुर्थी पर पेरिस की सड़कों पर निकली झाँकी अब शहर का सालाना आकर्षण बन चुकी है। परदेस में त्योहार मनाने का उत्साह तो है, मगर असुरक्षा का बुखार भी साथ चलता है। हाल ही में एक मंदिर की दीवार पर ‘गो बैक’ लिखी स्प्रे पेंटिंग ने डर को फिर जगाया।
सरकार की पहलें—कहीं मरहम, कहीं मर्यादा की कसौटी
फ्रेंच गृह मंत्रालय ने नस्लीय हमलों पर कड़ी सज़ा के लिए 2022 हेट-क्राइम एक्ट को सख्ती से लागू किया। इसके तहत सज़ा की अधिकतम अवधि 3 से 7 साल तय की गई। हालांकि आलोचकों का दावा है कि पुलिस रिपोर्ट तो लिखती है, पर अदालत तक जाते-जाते केस हवा हो जाते हैं। इसी महीने राष्ट्रपति कार्यालय ने धर्मस्थलों की सुरक्षा के लिए 10 करोड़ यूरो का बजट जारी किया। यह राशि कैमरे, अलार्म और गार्ड तैनात करने में खर्च होगी। मुसलमान और हिंदू—दोनों समुदायों के नेताओं ने इस कदम का स्वागत किया, पर भरोसा जताने से पहले “वास्तविक कार्रवाई देखेंगें” कहा।
स्कूलों में टकराव—हिजाब से लेकर तिलक तक
फ्रांस के सरकारी स्कूलों में कोई भी धार्मिक प्रतीक—बड़ा क्रॉस, रूमाल, तिलक—सब पर रोक है। 2023 में सरकार ने अबाटा (ढीली कफतान जैसी ड्रेस) पर भी प्रतिबंध लगा दिया। हिंदू विद्यार्थियों ने शिकायत की कि दीपावली पर दिया सजाने की इजाज़त नहीं मिलती, जबकि क्रिसमस पर पेड़ सजाना आम बात है। शिक्षाविद् चेतावनी देते हैं कि पढ़ाई की उम्र में भेदभाव का यह बीज भविष्य के समाज को और विभाजित करेगा।
सामाजिक संगठनों की चुनौती ‘पुल’ बनाएँ या ‘प्रोटेस्ट’?
पेरिस-स्थित एसोसिएशन अगेन्स्ट रेसिज्म ने बीते साल 1,200 मामले दर्ज किए, जिनमें 40% शिकायतें ऑनलाइन नफ़रत से जुड़ी थीं। संगठन के मुताबिक, कुछ मामलों में पीड़ित सिर्फ इसलिए चुप हो जाते हैं कि कहीं वीज़ा न रद्द हो जाए। दूसरी तरफ, हिंदू फ्रेंच काउंसिल मंदिरों के लिए ज़मीन आवंटन, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और भाषा कक्षाओं पर जोर दे रहा है, ताकि समुदाय अपनी जड़ें मज़बूत कर सके।
मुस्लिम-हिंदू संबंध: गली-मोहल्ले में कैसी है तस्वीर?
दिलचस्प यह है कि प्रवासी बस्तियों में मुस्लिम और हिंदू परिवार एक-दूसरे के पर्व में शरीक होते दिखाई देते हैं। मराकेश के मौहल्ले में रहने वाले भारतीय मूल के कारोबारी राजेश पटेल बताते हैं, “रमज़ान में मेरे घर से इफ्तार का खाना जाता है, तो दिवाली पर पड़ोसी का बेटा बम पटाखे चलाता है।” यानी आम आदमी के स्तर पर मेलजोल कायम है। टकराव ज़्यादातर तब दिखता है जब राजनीतिक बयान या मीडिया की सनसनी आम जनमानस को भड़का देती है।
कानून, शिक्षा और संवाद
विशेषज्ञ तीन सूत्र सुझाते हैं—पहला, नफ़रत फैलाने वालों को त्वरित और कड़ी सज़ा; दूसरा, स्कूलों में विविधता-शिक्षण ताकि बच्चे भिन्नता को सहज मानें; तीसरा, धार्मिक नेताओं का सक्रिय संवाद मंच, जहाँ विवाद होने पर बैठकर समाधान निकले। फ्रांस के लिए यह अग्निपरीक्षा का वक़्त है—क्या वह अपनी बहु-सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रख पाएगा, या संकीर्णता की धुँध में राह भटक जाएगा?