गुरुवार दोपहर संसद भवन के गेट नंबर एक पर अचानक गहमा-गहमी बढ़ गई। संजय सिंह, जो आम आदमी पार्टी से राज्यसभा सांसद हैं, एक ओर थे और दूसरी तरफ़ कश्मीर के वरिष्ठ नेता फ़ारूक़ अब्दुल्ला खड़े थे। कुछ ही पलों में यह मुलाक़ात ख़बरों का केन्द्र बन गई। आखिर ऐसा क्या हुआ कि दोनों नेताओं को गेट पर चर्चा करनी पड़ी? आइए क़रीब से समझते हैं इस पूरे घटनाक्रम को।
संसद के बाहर क्यों खड़े थे दोनों दिग्गज नेता? पूरा घटनाक्रम मिनट-दर-मिनट
दोपहर 1:15 PM के आसपास सुरक्षा गार्डों ने गेट के पास हलचल महसूस की। ठीक उसी समय संजय सिंह अपनी पार्टी की ताज़ा रणनीति पर मीडिया से बातचीत करने आए। उधर, फ़ारूक़ अब्दुल्ला किसी निजी मुलाक़ात से लौटते हुए संसद में दोबारा प्रवेश करना चाहते थे। जैसे ही दोनों के रास्ते टकराए, कैमरों का रुख़ उनकी तरफ़ हो गया।
दोनों नेताओं ने हाथ मिलाया, मुस्कुराए और तभी शुरू हुई छोटे से मंच जैसी नज़दीकी बातचीत। आसपास खड़े पत्रकारों ने माइक आगे बढ़ाया। सवाल थे—दिल्ली शराब नीति मामले में ताज़ा गिरफ़्तारियों से लेकर कश्मीर में चुनाव की तैयारी तक।
मीडिया की मौजूदगी ने कैसे बदला माहौल, और क्यों दिखी संजय सिंह की आक्रामकता?
जब मीडिया इकट्ठा हो जाता है, तो बयान छोटी फुसफुसाहट नहीं रहते। संजय सिंह ने जाँच एजेंसियों पर ‘तरफ़दारी’ का आरोप लगाते हुए कहा, “हम न्याय की आवाज़ उठाते रहेंगे, चाहे जितना दबाव आए।” उनके बोलते ही चार-पाँच चैनलों के लाइव बैनर लाल हो गए। दूसरी ओर, फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने शांत लहजे में कहा, “देश को आज सुचारु संवाद की ज़रूरत है, टकराव नहीं।”
कौन-कौन से राजनीतिक सवाल उछले, और किन बातों पर दोनों हुए असहमत?
सवाल जम्मू-कश्मीर की ताज़ा परिसीमन रिपोर्ट पर आया तो फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने कहा कि स्थानीय पार्टियाँ संवैधानिक लड़ाई लड़ेंगी। वहीं संजय सिंह ने तुरंत दिल्ली की चुनी सरकार की शक्तियों पर चर्चा शुरू कर दी। मुद्दे अलग-अलग थे, पर मंच एक ही था।
इस बीच, कैमरा क्रू ने बैकड्रॉप में संसद की इमारत और सामने लगी सुरक्षा बेरिकेड दिखाकर इस ‘टकराव’ को और नाटकीय बना दिया।
‘दृश्य राजनीति’ का असर: गेट पर बयान देना क्यों बनता जा रहा है नया ट्रेंड?
विशेषज्ञ मानते हैं कि संसद के गेट पर बयान देने से तत्काल सुर्खियाँ मिलती हैं। न कोई प्रेस कॉन्फ़्रेंस हॉल बुक करना पड़ता, न औपचारिक आमंत्रण भेजना। टीवी चैनल पहले से वहीं तैनात होते हैं। यही वजह है कि संजय सिंह जैसे विपक्षी नेताओं के लिए यह जगह मुफ़ीद है।
क्या इस मुलाक़ात के राजनीतिक मायने निकाले जाएँ या इसे सिर्फ संयोग मानें?
राजनीति में ‘संयोग’ कम ही होते हैं। दोनों नेताओं ने अलग-अलग मुद्दे उठाए, पर वक्त वही चुना जब कैमरे लाइव थे। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि संदेश सीधे जनता तक पहुँचाना मक़सद था।
सोशल मीडिया रिएक्शन: कुछ ही मिनट में वायरल हुईं तस्वीरें और मीम्स
इंटरनेट पर तस्वीरें आते ही मीम बाज़ार गर्म हो गया। किसी ने लिखा, “एक तरफ़ दिल्ली मॉडल, दूसरी तरफ़ कश्मीर की गाथा।” कुछ ने दोनों नेताओं के हाथ मिलाने को ‘संविधान बचाओ गठजोड़’ बता दिया। ट्वीटर पर SanjaySingh ट्रेंड करने लगा, तो इंस्टाग्राम रील्स में फ़ारूक़ अब्दुल्ला की सहज मुस्कान कट-पेस्ट होती रही।
सुरक्षा दृष्टि से ऐसे ‘स्पॉट प्रेसर’ कितने सुरक्षित? संसद मार्शल की चिंता
सुरक्षा अधिकारियों को डर रहता है कि भीड़ और कैमरा-क्रू के कारण गेट पर जाम लग सकता है। संसद मार्शल बार-बार अपील करते हैं कि नेता अंदर लॉबी या मीडिया सेंटर का उपयोग करें, मगर तुरंत कवरेज के लोभ में यह सलाह अक्सर अनसुनी हो जाती है।
आगे क्या? अदालत से लेकर सत्र तक, संजय सिंह और फ़ारूक़ अब्दुल्ला की अगली चालें
संजय सिंह: पार्टी सूत्रों के मुताबिक वे अगले सप्ताह नई याचिका दायर कर जाँच प्रक्रिया की निगरानी सुप्रीम कोर्ट से माँग सकते हैं।
फ़ारूक़ अब्दुल्ला: नेशनल कॉन्फ़्रेंस का केंद्रीय कार्यकारिणी सम्मेलन बुलाने का सुझाव दे चुके हैं, जहाँ परिसीमन के ख़िलाफ़ आंदोलन की रूपरेखा तैयार होगी।
क्या बार-बार के ‘गेट ड्रामा’ से गम्भीर मुद्दे छिपते हैं?
दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र रवि का मानना है कि इस तरह के दृश्य राजनीति से असली मसले पीछे छूट जाते हैं। वहीं, ऑटो-ड्राइवर श्याम लाल कहते हैं, “कम से कम हमें पता तो चलता है कि नेता किस बात पर लड़ रहे हैं।” स्पष्ट है कि दृश्य का असर मिलाजुला है—कुछ को जानकारी मिलती है, कुछ को दिखावा नज़र आता है।