दोस्ती अब दर्द बन गई है
कभी एक-दूसरे के साथी थे। अब वही आमने-सामने खड़े हैं। बिहार चुनाव में यही हो रहा है। सीट बंटवारे की बात जो कभी ‘आसान’ लगती थी, अब महागठबंधन के लिए सिरदर्द बन गई है। कांग्रेस और आरजेडी दोनों दावा कर रहे हैं कि सब सही चल रहा है। पर अंदर की आवाज़ कुछ और कहती है – “नहीं, सब ठीक नहीं है।”
नामांकन के बाद सामने आया सच
पहले चरण का नामांकन खत्म हुआ। और वहीँ सारी परतें खुल गईं। सात सीटों पर एक अजीब-सी स्थिति है — अपने ही लोग अब विरोधी बन गए हैं। औरंगाबाद, जहानाबाद, दरभंगा, सहरसा, कैमूर, सुपौल, मधेपुरा — हर जगह दो झंडे, दो नेता, एक गठबंधन। कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार उतारे, आरजेडी ने पीछे हटने से इनकार किया। अब मतदाता भ्रमित। जैसे कह रहे हों — “भाई, अब वोट दें तो किसे?”
कांग्रेस इस बार मानने के मूड में नहीं
पहले कांग्रेस अक्सर पीछे हट जाती थी। पर इस बार तेवर अलग हैं। नेता खुले मंच से कह रहे हैं — “हम बराबरी से लड़ेंगे। कोई समझौता नहीं।” उनका स्वर धीमा नहीं, साफ और तीखा है। कई जिलों के कार्यकर्ता मानते हैं कि पार्टी अब अपनी पहचान वापस चाहती है। यही वजह है कि कांग्रेस की ‘दोस्ती वाली’ छवि अब थोड़ी ठनी हुई लगती है।
आरजेडी में बेचैनी, माथे पर शिकन
तेजस्वी यादव को उम्मीद थी कि कांग्रेस मान जाएगी। मगर ऐसा नहीं हुआ। अब आरजेडी नेताओं में बेचैनी साफ दिख रही है। वे कहते हैं कि “कांग्रेस के ऐसे कदम से बीजेपी को फायदा होता है।” एक नेता ने तो कहा, “जब अपने घर में ही आग लगी हो, तो बाहर की लड़ाई कैसे जीती जाए?” उनकी बात में डर भी झलकता है और गुस्सा भी।
गठबंधन की एकता पर सख्त सवाल
महागठबंधन की एकता अब कहानी बनती जा रही है। बाहर से साथ, अंदर से बिखराव। एक ही गांव में दो पोस्टर, दो नारों की गूंज। कहीं कांग्रेस की मीटिंग, तो पास ही आरजेडी का जुलूस। ऐसे में जनता पूछ रही है — “ये गठबंधन है या मुकाबले का मैदान?” सवाल वाजिब हैं, क्योंकि तस्वीर साफ नहीं।
गाँवों में चालू है चर्चा
गांव के चौपालों पर सुबह से यही बात होती है। “अबो, ये महागठबंधन में सब गड़बड़ है।” किसी ने कहा, “पहले साथ थे, अब एक-दूसरे की टांग खींच रहे हैं।” लोग हंसते भी हैं, पर अंदर से सोचते हैं – अगर ऐसा ही चला, तो बीजेपी वाले आराम से निकल जाएंगे। चुनाव की हवा जो पहले तेज थी, अब थोड़ी ठंडी पड़ गई है।
बीजेपी और NDA मुस्कुराए
सत्ता पक्ष खुश है। बिल्कुल खुश। बीजेपी नेता **Giriraj Singh** ने कहा, “जो अपने साथियों से नहीं निभा पाए, वो बिहार से क्या निभाएंगे?” उनकी बात भले तीखी लगे, मगर असर छोड़ती है। हर सभा में एनडीए यही मुद्दा उठा रहा है। कहता है – देखिए, विपक्ष खुद से ही नहीं संभल रहा। बीजेपी और नीतीश कुमार शांत, लेकिन भीतर से राहत महसूस कर रहे हैं।
कांग्रेस की दलील – अलग पहचान जरूरी
कांग्रेस अंदर से दो हिस्सों में बंटी है। कुछ नेता कहते हैं — “आरजेडी पर निर्भर रहकर भविष्य नहीं बनेगा।” दूसरे मानते हैं कि साथ रहना ही रणनीति है। फिर भी, कांग्रेस धीरे-धीरे अपनी जमीन खुद तलाशना चाहती है। शायद ये कदम, जो अभी अटपटा लग रहा है, आने वाले वक्त में पार्टी को नया रास्ता दे।
आरजेडी का पलटवार – गलती कांग्रेस की ही
आरजेडी ने तुरंत पलटवार किया। उनका कहना है कि कांग्रेस को बिहार की राजनीति की असली समझ नहीं है। एक प्रवक्ता बोले, “जो पार्टी ज़मीन पर कमजोर हो, उसे गठबंधन की भाषा समझ नहीं आती।” बयान तेज़ था, लेकिन अंदर की नाराजगी ज़्यादा थी। अब दोनों दल बोल तो कम रहे हैं, पर दूरी बढ़ती दिख रही है।
मतदाता का मन बदलने लगा
मतदाता अब ऊब गया है। उसे वादे नहीं, भरोसा चाहिए। जब दो दोस्त ही आमने-सामने खड़े हो जाएं तो जनता किस पर यकीन करे? कई इलाकों में लोग कहते हैं – “जो आपसी तालमेल नहीं रख सकते, उन्हें सत्ता क्यों दें?” शायद यही भावना चुनाव नतीजों पर असर डालेगी।
आगे मुश्किलें बढ़ेंगी
पहले चरण की सात सीटें अगर झगड़े की वजह हैं, तो आगे ये संख्या और बढ़ सकती है। बातें हैं कि दूसरे चरण में भी कई जगहों पर उम्मीदवार को लेकर विवाद है। अगर ये सिलसिला नहीं रुका, तो महागठबंधन का सपना महज पोस्टर भर रह जाएगा। और शायद यही बीजेपी के लिए सबसे बड़ा मौका बन जाएगा।