नामांकन खत्म पर तालमेल अधूरा, माहौल गर्म
पहला चरण बीत गया। नामांकन बंद। मगर "महागठबंधन" के भीतर सब कुछ थमा हुआ नहीं है। कांग्रेस और आरजेडी दोनों टीवी पर बोलते हैं, “सब ठीक है।” लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और कहानी कहती है। कम से कम पांच सीटें ऐसी हैं, जहाँ समझौते की डोर बार-बार टूट जा रही है। नेता बैठे हैं, चर्चाएँ हो रही हैं, पर नतीजा नदारद।
सीट बंटवारे में उलझता गणित
इस बार का चुनाव दिलचस्प है। बाहर के मुकाबले भीतर की लड़ाई ज़्यादा है। कांग्रेस ज़िद पर अड़ी है – 70 सीटें चाहिए ही। आरजेडी कहती है – “हम बड़े भाई हैं, फैसला हमारा होगा।” लेफ्ट पार्टियाँ अपने हिस्से का पुराना हक़ मांग रही हैं। पर मुश्किल ये कि जिन सीटों पर कांग्रेस नज़र गड़ाए बैठी है, वो आरजेडी कभी नहीं छोड़ने वाली। यानी खींचतान जारी। और वक्त भाग रहा है।
‘महाडिले बंधन’ — सोशल मीडिया की नई उपाधि
लोग अब **महागठबंधन** को मज़ाक में ‘महाडिले बंधन’ कहने लगे हैं। मीम बन रहे हैं, हंसी के साथ तंज भी। ट्विटर और फेसबुक पर चल रहीं ये बातें नेताओं तक भी पहुंच रही हैं। कोई बोलता है – “हम मजबूत हैं।” दूसरा कहता है – “मजबूती नहीं, मजबूरी है।” मतलब साफ है, जनता सब देख रही है।
कांग्रेस की सफाई – सब ठीक है
कांग्रेस के नेता बयान दे रहे हैं कि “सब सेट है, बस थोड़ी औपचारिकता बाकी है।” पर अंदर की हवा कुछ और कहती है। सूत्र ये भी बताते हैं कि सीमांचल से लेकर चंपारण तक कांग्रेस के दफ्तरों में नाराज चेहरों की भीड़ है। एक वरिष्ठ नेता ने कहा – “अगर हमें सम्मानजनक सीटें नहीं मिलीं, तो हमें सोचना पड़ेगा।” उनकी आवाज़ धीमी थी, मगर मायने बड़े।
आरजेडी की स्थिति – दबदबा और डर दोनों साथ
तेजस्वी यादव इस वक्त सबसे आगे चल रहे हैं। आरजेडी तय कर रही है कि कौन सीट किसे मिले। बेगूसराय, जहानाबाद, सहरसा – इन पर लड़ाई सबसे ज़्यादा। आरजेडी चाहती है ये सीटें उसके पास रहें, जबकि सहयोगी अब खुलकर विरोध कर रहे हैं। कुछ कहते हैं, तेजस्वी सुनते नहीं, बस बोलते हैं। शायद यही अंदरूनी खींचतान बाद में मुश्किल बन जाए।
लेफ्ट पार्टियाँ भी खफा
भाकपा और माले को उम्मीद थी कि इस बार उनके हिस्से में ज्यादा सीटें आएंगी। लेकिन कांग्रेस और आरजेडी दोनों वहीं दावा ठोक रहे हैं। माले के एक स्थानीय नेता ने कहा – “हम जनआंदोलन से निकले हैं, मोहरों से नहीं डरते।” ये बयान साफ संकेत है, लेफ्ट अब नाराज है। अगर उन्होंने अलग रास्ता चुना, तो महागठबंधन का वोट सीधा बंट सकता है।
पहले चरण में कई सीटों पर भ्रम कायम
औरंगाबाद, दरभंगा, कैमूर – सब जगह गहमागहमी। कांग्रेस कहना है ये उसकी पारंपरिक सीटें हैं। आरजेडी का दावा है – ये इलाका हमारा गढ़ है। निचले स्तर के कार्यकर्ता परेशान हैं। किसे मानें, कौन टिकट लेगा? सब अस्पष्ट। नेताओं के भाषण जारी हैं, लेकिन सूची बंद दरवाज़े के पीछे फंसी है।
वोटरों में नाराजगी और सवाल
गांव की चाय दुकान पर अब चर्चा इस बात की नहीं कि कौन जीतेगा, बल्कि यह कि विपक्ष कब एकजुट होगा। लोग थक चुके हैं। एक नौजवान बोला, “अगर ये लोग खुद तय नहीं कर पा रहे कि कौन लड़ेगा, तो हमारे लिए क्या लड़ेंगे?” शायद यही राय कई लोगों की है। विश्लेषकों कहते हैं, इसका सीधा फायदा बीजेपी को मिलेगा।
Giriraj Singh और बीजेपी का पलटवार
इधर **Giriraj Singh** और उनकी पार्टी इस झगड़े को मुद्दा बना रही है। Giriraj कहते हैं, “जो दल आपस में नहीं सुलझा सकते, वे बिहार क्या संभालेंगे?” उनका लहजा हल्का व्यंग्य भरा होता है, पर असर गहरा छोड़ता है। बीजेपी और NDA ने अपने उम्मीदवार तय कर दिये हैं। अब वे विपक्ष की उलझन पर हँसी भी उड़ा रहे हैं और फायदा भी उठा रहे हैं।
महागठबंधन में दिखावटी एकता
टीवी पर मुस्कानें हैं, तस्वीरें हैं, साथ दिखाई देते हैं। पर भीतर से सब थके हुए हैं। कांग्रेस, आरजेडी, लेफ्ट – हर पार्टी अपने आंकड़े गिन रही है। साझा बयान आता है – “सब एकजुट हैं।” लेकिन ज़मीन पर असल कहानी कुछ और बयां कर रही है।
चुनाव का असली मंजर
बिहार अब चुनावी रंग में रंग चुका है। लाउडस्पीकर पर गाने, पोस्टर, झंडे और नेताओं के बड़े दावे। बीच में ये गठबंधन है, जो हर बार नई अड़चन का शिकार होता जा रहा है। समझौते के बजाय अब बस बयान आ रहे हैं। किसी को भरोसा नहीं। और जनता जानती है, वक़्त बहुत नहीं बचा।