पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मेरठ शहर इस समय फिर से सुर्खियों में है। यहां हुई महापंचायत ने गुर्जर और राजपूत समाज के उस पुराने विवाद को ताजा कर दिया है, जो मिहिर भोज की पहचान को लेकर दशकों से चलता आ रहा है। समाज के दोनों वर्ग अपने-अपने तरीके से बता रहे हैं कि मिहिर भोज कौन थे और उनका वंश किस समाज से जुड़ा हुआ है। यही वजह है कि एक ऐतिहासिक राजा का नाम आज की राजनीति और समाजिक समीकरणों में भी बार-बार सामने आ रहा है।
इतिहास में मिहिर भोज का काल क्यों खास माना जाता है
भारतीय इतिहास में मिहिर भोज का शासनकाल एक अलग पहचान रखता है। इसे इतिहासकार तीन साम्राज्यों के युग के रूप में याद करते हैं। उस समय उत्तरी भारत में तीन बड़ी शक्तियां आपस में टकरा रही थीं—पश्चिम में गुर्जर-प्रतिहार, पूर्व में पाल साम्राज्य और दक्षिण में राष्ट्रकूट। कन्नौज का इलाका इन तीनों शक्तियों के बीच संघर्ष का मुख्य केंद्र बना हुआ था। मिहिर भोज ने इसी कन्नौज को अपने नियंत्रण में लेकर अपनी ताकत को और मजबूत किया। उनका शासन लगभग 9वीं सदी के मध्य में फैला और उन्होंने अपने साम्राज्य को उत्तर भारत से लेकर मध्य भारत तक फैला दिया।
कन्नौज पर पकड़ और साम्राज्य का विस्तार
मिहिर भोज की सबसे बड़ी उपलब्धि कन्नौज पर अधिकार स्थापित करना था। कन्नौज उस समय सिर्फ एक शहर नहीं बल्कि राजनीति और शक्ति का प्रतीक माना जाता था। इसे जीतने वाला उत्तरी भारत का सबसे बड़ा शासक समझा जाता था। मिहिर भोज ने वहां शासन कर गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य को नई दिशा दी। उन्होंने कालिंजर के किले, वर्तमान उत्तर प्रदेश और मध्य भारत के कई हिस्सों को अपने साम्राज्य में शामिल किया। इतिहासकार बताते हैं कि उनकी फौज बेहद संगठित और मजबूत थी। उनकी जीत की वजह से हरियाणा से लेकर गुजरात तक का क्षेत्र उनके प्रभाव में आ गया।
मिहिर भोज की नीतियां और शासन का तरीका
मिहिर भोज सिर्फ युद्धों में ही नहीं, बल्कि शासन चलाने में भी निपुण माने जाते हैं। उन्होंने अपने साम्राज्य में प्रशासनिक ढांचे को मजबूत किया, किसानों और व्यापारियों को संरक्षण दिया और जिस इलाके को जीता, वहां स्थिर शासन की व्यवस्था की। उनके शासनकाल में व्यापार के रास्ते खुले और समृद्धि बढ़ी। इतिहास में दर्ज है कि उन्होंने कई मंदिरों का निर्माण भी करवाया, जिनसे धर्म और संस्कृति को बढ़ावा मिला। भले ही आज उनकी पहचान को लेकर विवाद सामने आते हों, लेकिन यह तय है कि वह उस दौर के सबसे प्रभावशाली शासकों में गिने जाते थे।
गुर्जर और राजपूत समाज के बीच पहचान की जंग
आज विवाद का सबसे बड़ा कारण यह है कि गुर्जर समाज मिहिर भोज को अपना प्रतिहार राजा मानता है जबकि राजपूत समाज यह दावा करता है कि वे एक महान क्षत्रिय शासक थे। वर्षों से यह मुद्दा चुनावों और समाजिक कार्यक्रमों में बार-बार उभरता रहा है। मेरठ की महापंचायत भी उसी विवाद का नया अध्याय साबित हुई है। राजनीतिक रूप से भी मिहिर भोज की छवि को लेकर कई दल सक्रिय रहते हैं, क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान में गुर्जर और राजपूत दोनों समुदाय बड़ी वोट शक्ति रखते हैं। इस वजह से ऐतिहासिक बहसें अक्सर राजनीतिक दिशा लेने लगती हैं।
आज के दौर में मिहिर भोज का महत्व क्यों बना हुआ है
समय बीतने के बाद भी मिहिर भोज का नाम सिर्फ इतिहास की किताबों तक सीमित नहीं रहा। उनकी छवि आज भी समाज के विभिन्न वर्गों को जोड़ती और कभी-कभी बांटती भी है। इतिहासकार कहते हैं कि उनके शासनकाल ने उत्तर भारत में स्थिरता दी और विदेशी आक्रमणों से भारत की रक्षा की। आज जब गुर्जर और राजपूत समाज उनके नाम को लेकर आमने-सामने आते हैं, तो यह साफ दिखता है कि एक ऐतिहासिक विरासत आधुनिक राजनीति और समाजिक पहचान के लिए कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है। मेरठ की महापंचायत इसका ताजा उदाहरण है।
इतिहास से सबक लेने की जरूरत
इतिहास हमें हमेशा सीख देता है कि पुरानी बहसों और झगड़ों से समाज को नुकसान होता है। मिहिर भोज जैसे शासकों की असली पहचान उनकी वीरता, संगठन शक्ति और शासन में छिपी है। अगर समाज इन मूल्यों को अपनाए तो आने वाली पीढ़ियों के लिए यह ज्यादा उपयोगी होगा। गुर्जर और राजपूत समाजों के बीच इस विवाद को राजनीतिक रंग देने से बेहतर है कि इसे इतिहास की गहराई में समझा जाए। आखिरकार मिहिर भोज एक महान राजा थे जिन्होंने भारत की धरती की रक्षा की और अपने साम्राज्य को मजबूत बनाया। यही उनकी असली पहचान है।